स्वातंत्र्य-प्रेम एवं देशभक्ति के पर्याय : राणा रतन सिंह सोढा

Sep 15, 2023 - 18:19
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स्वातंत्र्य-प्रेम एवं देशभक्ति के पर्याय : राणा रतन सिंह सोढा

माणकासर (बज्जू खालसा/ बीकानेर) किसी भी क्षेत्र का सपूत,साहसी,शूरमा अपने सुकर्मों,गुणों से सदैव लोक मानस में चिरस्थायी हो जाता है। यदा-कदा उसकी स्मृतियां परमार्थ की पराकाष्ठा का ही नहीं बल्कि हमें उनके अनुकरणीय कुंदन कृतित्व का भान कराती हैं। साथ ही हमें शौर्य सुषमा की सृजनात्कम शिनाख़्त से रूबरू कराती है। ऐसे जीवटता के धनी बहादुर सपूत प्रायः समाज हेतु शिरोधार्य करने वाले प्रेरणा-पुंज ही होते हैं।
अविभाजित भारत के थरपारकर क्षेत्र (सिंध) के प्रसिद्ध प्राचीन ऐतिहासिक नगरों में अमरकोट का नाम अग्रणीय रहा है। अमरकोट पहले सिंध की राजधानी रही है। यह स्थान भौगोलिक निर्देशांक 31° 26' उत्तर अक्षांश और 74° 64'पूर्व देशांतर पर स्थित है। अमरकोट में वीरवर पाबूजी राठौड़ और रूणीचा के लोक देवता रामदेव जी तंवर का पाणि ग्रहण संस्कार हुआ है। दिल्ली के बादशाह हुमायूं की शरण स्थली। महारानी विक्टोरिया के राज्य के पचास वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में 26 फरवरी 1887 को स्वर्ण जयंती का ऐतिहासिक उत्सव आयोजन यहीं हुआ। यह क्षेत्र 12 सदी से ब्रिटिश भारत के विभाजन 1947 ई.तक परमार वंशीय सोढा राजपूतों के प्रत्यक्ष,यदा-कदा अप्रत्यक्ष शासन में रहा। सोढा राजपूतों के शौर्य,पराक्रम,त्याग,बलिदान,वीरता और दातारगी के कारण यह क्षेत्र "सोढाण" के नाम से भी सुप्रसिद्ध है। इसी क्षेत्र के राणा रतन सिंह अपने स्वाभिमान,देशभक्ति और स्वातंत्रय-प्रेम के रूप में सिंध-हिन्द में सुविख्यात रहे हैँ।
राणा रतन सिंह के बारे में हिंदी के श्रेष्ठ निबन्धकार प्रताप सिंह भाटी टेपू की लेखनी का उल्लेख करना समीचीन होगा। वे अपनी एक पोस्ट में यथेष्ट सटीक ही लिखते हैं कि 'धरा और धर्म की ध्वजा का मान रखने; कर्त्तव्य पालन की राह सजाने ; प्रजापालक बनकर ईश भाव उपजाने ; तन से वतन की हिफ़ाज़त को उद्यत रतन ; सरदारों की दातार अवतार मोहक मूर्ति ; अकूत भावों के विस्तारक पुरोधा; नेम और नेह के आगार आकार महायोगी देशभक्त राणा रतन सिंह सोढा की छवि शब्दों को अपने में इस तरह से आबद्ध करने को कलम से करबद्ध निवेदन करती है।'
पात्र ही इतना उज्ज्वल और श्रेष्ठ है कि कागज के केनवास पर वाक्यों की चलचित्र चित्रहार तूलिका से उनका चरित्र मान बिन्दु बनकर मानचित्र पर उत्कीर्ण होता जाता है। भारत भूमि की सीमा,जहाँ महज काग़जों में समाप्त होकर भी मानस दृष्टि में एक घर का ही वातावरण आवरण उत्पन्न करती है,धोरों का मरुथली लगाव कहीं भी अलगाव को हस्ताक्षरित कर,किसी भी फ़रक को अंकित नहीं करता,ऐसे अमरकोट के अमर राणा रतन सोढा पर नजर जाकर इनायत कर आती है।

भारत के स्वाधीनता आंदोलन में सिंध के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों का विशेष योगदान रहा है। मिसाल के तौर पर शूरवीर शीदी होश मोहम्मद ने अपनी युद्ध कला से अंग्रेजों को म्याणी (17 फरवरी 1843) और दुबे (21 अप्रेल 1843) के नामक युद्धों में लोहे के चने चबाते हुए ''मरेसूं पर सिंध न डेसूं" का नारा लगाते हुए शहादत का जाम पिया तो क्रांतिकारी हेमू कालाणी ने 21 जनवरी 1943 को अपनी अल्प आयु में भारत की स्वतंत्रता हेतु भारत माता की जय का उद्घोष लगा कर मुस्कराते हुए फाँसी का फँदा अपने गले में डाल दिया। इसी भांति जिला थरपारकर के नगरपारकर में 1859 ई. को अंग्रेजों के ख़िलाफ़ विद्रोह करने वाले कलसिंह सोढा वीरावा,महासिंह वरण (परमार) उनके स्वामी भक्त गांव कोंभारी के रूपा कोली की कुर्बानी अवर्णनीय ही है तो अमरकोट (ढाट) के स्वतंत्रता सेनानी राणा रतन सिंह सोढा और उसके सहयोगी भगूजी संगरासी सोढा और अन्य संगी साथियों का नाम भी अग्रणीय है।
 भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के अमर सेनानी राणा रतन सिंह सोढा का जन्म 19वीं शताब्दी के तीसरे दशक में सोढा शासकों के आधिपत्य अमरकोट के राणा खीमराज सुरताणोत के कुंवर विजय सिंह के ठा.सूरजमल के पौत्र अणंद सिंह की अर्धांगनी रघुकंवर बाहड़मेरी (भारोजी के पौत्र उदय सिंह किशनदास जी महेचा गढ बाहड़मेर की कंवरी) की कोख से हुआ। ये अमरकोट के तत्कालीन राणा मेहराज द्वितीय के कुटुम्ब में थे। ये ठा.अणंद सिंह की तीसरी संतान थी। ये बचपन से ही जोशीले,गर्वीले और बहादुर प्रकृति के व्यक्ति थे। इसी साक्ष्य के सन्दर्भ में डिंगल के सुप्रसिद्ध कवि गिरधरदान रतनू दासोड़ी राणा रतन सिंह के शौर्य पर गर्व करते हुए कहते हैं -
  जे रतने जिसड़ाह,जामण धर किता जण्या।,   अवनी पर इसड़ाह, केक सूरमा काळिया।।
   हालांकि ये अमरकोट के राणा नहीं थे। पर ब्रिटिश सरकार के लीज़ वसूली कर्त्ता मुहम्मद अली शाह की हत्या के बाद में ढाट की जनता ने इस अनूठे कीर्तित्व के कारण इन्हें सम्मान में राणा का ख़िताब दे दिया। दरअसल ऐसा सम्मान का उदाहरण भारत में अन्य किसी भी स्वतंत्रता सेनानी और देश भक्त को दिए जाने का उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता है।
1843 ई.में ब्रिटिश सेनापति सर चाल्र्स जेम्स नेपियर द्वारा टालपुरों-मीरों को पराजित कर अमरकोट (ढाट क्षेत्र) को अपने अधिकार में लिया। लेकिन पूरे थरपाकर क्षेत्र में अनुशासनहीनता हो गई। अपराध बढ़ने लगे और ताकतवर लोग अपनी मनमानी करने लगे। सोढा भी अपने प्रभुत्व की पुनः स्थापना के लिए प्रयास करने लगे। उन्होंने दावा किया कि प्रदेश में उनके पुश्तैनी वर्चस्व को स्वीकार किया जाय,उन्हें राजनैतिक अधिकार दिए जाएं। पोलिटिकल एजेंट जी.बी.ट्रिविट (तरवट)ने विद्रोह को शांत करने के प्रयास में सोढाओं की कतिपय मांगें मान लेने हेतु सहमत हो गया। लेकिन जो वह देने को तैयार था। पर वह राणा मेहराज द्वितीय अन्य सोढा जागीरदार लेने को सहमत नहीं हुए। अंत में अंग्रेजों के हुकूमरान तरवट ने मांगें अस्वीकार कर अमरकोट से दस मील दूर स्थित गाँव खेजड़ियाली (खारोड़ा के पास) के मुहम्मद अली शाह सैयद को अमरकोट की छाछरे तक बीस कोस की लंबी रियासत सोढों से ख़ालसे कर लीज़ (इजारा) पर दे दी। ढाट की जनता ने ब्रिटिश की दमनकारी नीति का पुरजोर विरोध किया। मुहम्मद अली शाह ने विद्रोह को कुचल देने का प्रयास किया। जनता पर मनमाने कर थोपकर और कठोरता से वसूली हेतु अत्याचार करने लगा। जनता ने अमरकोट के राणा मेहराज द्वितीय से रक्षा हेतु गुहार की किन्तु वहां से कोई राहत नहीं मिली। राणा भी अंग्रेजों के दबाव की वजह से जनता का खुला समर्थन नहीं कर पाए। फिर जनता ने इस अत्याचार के निवारण हेतु एक और सपूत योद्धा रतन सिंह से गुहार करते हुए कहा कि 'हमारी रक्षा करो या फिर हमें आज्ञा दें कि हम यहां से प्रस्थान कर जाएं।' रतन सिंह ने तरवट से जनता को राहत दिलाने हेतु निवेदन किया,पर उनकी शिकायत पर ध्यान न देकर उन्हें कहा कि 'वे इस लीज़ के विवाद में नहीं आएं।' तरवट द्वारा उन्हें वृहत् भूमि दिए जाने का प्रलोभन दिया गया लेकिन ऊर्जस्वी रतन सिंह ने उसे अस्वीकार कर दिया।
राणा रतन सिंह ने मुहम्मद अलीशाह सैयद को समझाया परंतु वह मदांध आततायी यों कब मानने वाला था।कहा जाता है कि एक दिन अमरकोट बाजार में या किसी एक आयोजन के दौरान जनता पर मनमानी ढाट की लीज़ की ऊंची बोली लगाने के संदर्भ में दोनों में बहस हो गई। बात-बात पर सैयद ने राणा को कुढंग वचन कहकर उन्हें चुनौती दे डाली। 'तुझे जो कुछ करना है कर लेना। मैं तो अपनी वसूली करूंगा ।' राणा को तो यह बर्ताव बहुत नागवार लगा। तब राणा रतन सिंह ने कहा कि 'सैयद तू थल (ढाट) में वसूली पर जाए तो सोच समझकर जाना। तेरी खैर नहीं।' इसी कथन की साक्ष्य में समकालीन राजस्थानी कवि का यह दोहा पुष्टि करता है -
   उसर मुकादे ऊपरां,कह ग्यौ वैण कुढंग।, ढे मार सैयद को,वतन लिया बहु रंग।।
      इसके बाद राणा रतन सिंह ने इस मदांध सैयद को कटु वचन के प्रतिशोध में ठिकाणे लगाने की रणनीति के तहत गाँव रामसर के भगूजी पुत्र श्री रामसिंह संगरासी सोढा के साथ मिलकर अमरकोट के पूर्व में गांव मूलीयार और खारियाबो के बीच में अछिये वढे (रास्ते) वाली डेहरी में ललकारते हुए गोली मारकर हत्या कर दी। कहते हैं कि इस सैयद की हत्या करवाने की सलाह में  गाँव बाहड़ियाई के देथा तेजदान के सुपुत्र प्रहलाददान और देशल राठौड़ भी राणा रतन सिंह के साथ थे।
सैयद की हत्या के समय ओपियो वला (परमार) गाँव सीताबो भी  मुहम्मद अली के साथ आया था। उसने रतन सिंह से काफ़ी अनुनय विननय की तो राणा ने उसे गोत्री पाप के डर से छोड़ दिया। लेकिन उस निंदनीय विश्वासघाती कपूत ने ही बाद में अंग्रेजों को गुप्त रूप से राणा का सारा भेद बता ही दिया और साथ में अली सैयद के केस में गवाही भी दी। धिक्कार है उस कपूत को।
 डॉ.शक्तिदान जी कविया ने अपनी कृति 'धरा सुरंगी धाट' में राणा रतन सिंह के अन्य संगी साथियों में समेल सिंह,अमर सिंह,राम सिंह सोढा और देशल सिंह राठौड़ के नाम गिनाए हैं। पर देथा प्रहलाददान का जिक्र कहीं नहीं किया।
 सैयद अली की हत्या के बाद राणा रतन सिंह ,उसके सहयोगी भगूजी सोढा और अन्य साथी फ़रार हो गए। वयोवृद्ध ठा.रिड़मल सिंह गोरड़िया (हरसाणी) के कथनानुसार राणा रतनसिंह फ़रार के बाद तीन दिन गाँव धीणोर की थली पर बैठे रहे। उसके बाद कुछ महीने सिंध क्षेत्र में फ़रार रहे। यद्यपि अंग्रेज पुलिस तो उनका पीछा कर रही थी। लेकिन उन्हें पकड़ने की हिम्मत नहीं हुई। फिर वे धोलिया धय (दलदल) में और उसके बाद कुछ समय पाली की रोही (जैसलमेर) में आकर रहे। आखिरकार अंग्रेज अपनी जासूसी और सैन्य शक्ति के बल पर दोनों को उस पाली की रोही (बधी बावळी क्षेत्र) में एक रात को सोते हुए को पकड़ने में कायम हुए। कहते है कि उस रात राणा की देवनीक घोड़ी ने उन्हें सचेत भी किया। पर वे कई दिनों के ओजके के कारण जागे नहीं।
 ब्रिटिश हुकूमत ने उन दोनों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया और सुनवाई के बाद राणा रतन को मृत्यु दंड की सजा तथा भगूजी सोढा को काले पानी की सजा बोली गई। अमरकोट व ढाट की जनता ने भी इसका पुरजोर विरोध किया और ब्रिटिश सत्ता के फैसले के ख़िलाफ़ बोम्बे प्रेसीडेन्सी के गवर्नर इन काउंसिल के समक्ष अपील की गई। अपील स्वीकृत भी हो गई। किन्तु कतिपय कारणों से आदेश विलम्ब से जारी हुआ।  आखिर फाँसी से तीन पहले स्थगित का आदेश आया। उस समय अमरकोट में एक बोहरा ब्राह्मण पोस्टमेन था। उसकी सैयदों से मिली भगत थी। उसने वह डाक (तार) किसी दबाव से जज या जेलर को यथा समय पर नहीं पहुँचाई। पर, रतन सिंह के गले में फाँसी का फँदा पड़ते ही वह डाक (स्थगन आदेश) जेलर को पकड़ाई। तब निर्भीक राणा रतन सिंह ने कहा कि ' जब फाँसी का फँदा गले में डाल ही दिया है तो मैं अब तख्ते से पीछे हटने वाला नहीं हूं। उस ब्राह्मण डाकिये को राणा रतन ने बद-दुआ दी कि 'तेरा तो सत्यानाश हो।' वो पिट पक भी गई। अब तो उस बोहरा का वंश ही खत्म हो गया है। जीवराजसिंह रतनसिंहगोत के पड़पौत्र हरिसिंह के अनुसार कुछ ही क्षणों बाद स्वातंत्र्य-प्रेमी क्रांतिकारी चेतना के प्रतिनिधि स्वर राणा रतन सिंह को श्रावण कृष्ण तीज वि.सं.1923,(30 जुलाई 1866 ई. सोमवार) के दिन सूली पर लटका दिया। भगूजी सोढा को काले पानी की सजा देकर अंडमान निकोबार निर्वासित कर दिया गया। वहीं पर उनका देहांत हुआ। उस समय भगूजी सोढा के परिवार का निवास खुनेर (रामसर) में था। तत्पश्चात् इनके पुत्र थान सिंह ने 'थाने का तला' आबाद किया। प्रहलाददान देथा फ़रार ही रहे।
 इतिहासकार तने सिंह सोढा 'काठा' के मतानुसार जब राणा रतन सिंह को फाँसी की सजा देने के लिए अमरकोट किले के बीचो बीच देहरी पर लाया गया और तब राणा से अपनी अंतिम इच्छा के बारे में पूछा गया तो करीबन 35-40 उम्र के राणा रतन ने मुस्कराते हुए एक ही इच्छा जताई और कहा कि 'मेरे हाथ खोल दो।' हाथ खोलने पर राणा ने अपने हाथ चेहरे तक उठाये और मूंछों के दोनों किनारों को ताव (मरोड़ते हुए) देते हुए कहा कि-'मैं अब तैयार हूं।' फिर वह भारत मां का लाल, स्वाभिमानी वीर सपूत सन्न 1866 ई.में सूली के फँदे पर झूल गए। पर वे तो उन राजपूत शूरमों के वंशज थे। जिसने कवियों की कही हुई इस उक्ति को वाक़ई गौरव के साथ चरितार्थ कर दिखाया-
    धड़ धरती,पग पागड़ै,आंतां तणौ घरट्ट।  तोई न छंडै साहिबो,मूंछां तणी मरट्ट।।
(योद्धा का धड़ धरती पर है,पांव घोड़ों के पागड़े में हैं। आँतें बाहर गठरी की तरह निकल पड़ी है। फिर भी हे सखी ! मेरे प्रीतम की मूंछों की मरोड़ यथावत् है।)   इस सन्दर्भ में मेरी भी कलम ऐसे रोब रूतबे वाले रतन पर कहने को आतुर हो उठती है-
    रतन सरीखो राजवी,वतन तणो बेजोड़।,  समै आखरी रोब सूं,मूंछां हाथ मरोड़।।
      हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के कथनानुसार 'हिम्मत मांस पेशियों से नहीं बल्कि कलेजे की ताकत से आती है' को देश भक्त राणा रतन सिंह ने ब्रिटिश सत्ता का पुरजोर विरोध कर अपने साथी भगूजी संगरासी सोढा और प्रहलाददान देथा के साथ अन्यायी विधर्मी सैयद मुम्हमद अली शाह की हत्या कर 'बोली और बाप एक' के वचन को पालकर अंत में अपने प्राणों की आहूति देकर सार्थक और साकार कर दिया। जिनकी कीर्ति आज भी ढाट,सिंध और राजस्थान के लोक मानस में जन नायक के रूप में प्रतिष्ठित ही नहीं अपितु गौरवांवित है। इस सपूत की शूरवीरता,स्वातंत्र्य-प्रेम और बलिदान की प्रेरणादायी स्मृति के संदर्भ में झुरावा के रूप लोक गीत 'रतन राणौ' को गांव बालेबा (बाड़मेर) के बारहट बादरदानजी (बक्सोजी) के सुपुत्र शिवदानजी ने रचकर उन्हें अमर कर दिया। जो अत्यन्त ह्रदयस्पर्शी एवं रोचक राग में उल्लेखनीय बन पड़ा है,जिनकी ठकुराणी श्रंगार कंवर भटियाणी (जालमसिंह बिहारीदास जी अखेराजोत गाँव हरसाणी की कंवरी,मोहनसिंह राव गाँव हाथमा ,बाड़मेर की बही के अनुसार) के अंतर्मन की विरह नाद का स्वर भी परिलक्षित हुआ है। जिनके निम्नांकित दो अंतरा पठनीय हैं -

    म्हारा रतन राणा,एकर तो अमराणे घुड़लो पाछो घेर,   अमराणे में बोले सुवा मोर,हो जी हो
   म्हारा रतन राणा,अमराणे में बोले सुवा मोर,    बागां में बोले काळी कोयलड़ी रे
   म्हारा सायर सोढा,एकर सूं अमराणे घुड़लो घेर।।1।।

   भटियल ऊभी छाजलिये री छांह,हो जी हो   आंसूड़ा ढळकावै कायर मोर ज्यूं रै ।
   म्हारा रतन राणा,एकर सूं अमराणे घुड़लो घेर।।5।।

 इस सुप्रसिद्ध लोक गीत की ख्याति के सन्दर्भ में विद्वान मनीषी डॉ.शक्तिदान कविया की यह पद्यात्मक पंक्तियां भी द्रष्टव्य है-
     गीत रतन राणौ गजब ,फैल्यौ जस चहुंफेर।, एकरसां अमरांण में,घुड़लौ पाछौ घेर।।
सुविख्यात डॉ.शक्तिदान जी कविया ने अपनी प्रसिद्ध कृति 'धरा सुरंगी धाट' में राणा रतन सिंह के वंशज सपूत नर-रत्नों और उनकी जन्मस्थली भडेली (अमरकोट) की महिमा का जो चित्रण किया है। वह निःसंदेह पठनीय ही नहीं अपितु सराहनीय भी है-
       थाट भडेली थेट सूं,सुजस मढेली साज।,    धाक हुती अमरांण धर,अंजस मुरधर आज।।
      रजवट रांणे रतन री,महि कुळवट मजबूत।,    रीत सनातन राखणा,सोढा घणा सपूत।
देथा चारण अमरकोट सोढा परमारों के प्रोलपात चारण रहे हैं। कहा जाता है कि आदरणीय तथा सम्मानित होने के कारण ही राणा रतन सिंह व उनके साथियों ने देथा प्रहलाददान को मारवाड़ पहुंचाया और उनका नाम अंग्रेज सरकार को हरगज नहीं बताया। लेकिन बाद में अंग्रेजी दमन और भय की आशंका से उनका परिवार मूल गाँव बाहड़ियाई को उसी साल छोड़कर कुछ अरसे गाँव खारची और झिणकली में रहने के बाद जैसलमेर रियासत के कोडा गाँव में 1897 ई.में आकर बस गया।  वर्तमान में रतन राणा के वंशज या परिवार ढाट (सिंध) में भले नहीं है,लेकिन थर में उनके बहादुरी के क़िस्से आज भी लोक जुबान पर हैं। यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि ब्रिटिश हुकूमत से सीधी टक्कर लेकर उन्हें ढाट में लीज़ समाप्त करने हेतु विवश करने वाले ऐसे शूरवीर के नाम से थर में एक भी स्मारक नहीं है। यही नहीं उसे अपनी मातृभूमि पर भले एक मूर्ति रूप नसीब नहीं हुआ हो लेकिन ढाट के धोरों में उनके नाम की सौंधी सुगंध अनन्त काल तक महकती रहेगी। हालांकि जोधपुर में निवासरत उनके वंशजों ने अजमेर में राणा रतन सिंह का स्मारक बनाया है।
    राणा रतन सिंह के मोड़ सिंह ,रणजीत सिंह और जीवराज सिंह तीन पुत्र थे। मोड़ सिंह और रणजीत सिंह निःसंतान थे। जीवराज सिंह जी (ठि.भडेली) के सुपुत्र भैर सिंह व सोन सिंह के वंशज सन्न 1968 तथा 1999 में राजनैतिक व सामाजिक उलझनों के कारण भारत आ गए जो अभी जोधपुर के बी.जे.एस व रूपनगर के अलावा खातीपुरा जयपुर में विराजमान हैं। भगूजी सोढा के वंशज अब गाँव मूलाना (जैसलमेर) में 1980 ई.से निवासरत हैं। प्रहलाददान देथा के अग्रज (बड़े भाई) दानजी देथा के वंशज गाँव कोडा (जैसलमेर) में 1897 ई. और सूजाजी देथा के वंशज गाँव पुषड (तह.शिव,बाड़मेर) में निवास करते हैं।     नि:सन्देह राणा रतन सिंह की अंग्रेजों के विरुद्ध आजादी हेतु लड़ाई और उनकी शहादत अमर है। अतः उनकी यह देश व धर्म रक्षार्थ अवर्णनीय कुर्बानी सिंध-हिंद में सदियों तक गुंजायमान रहेगी। उनकी शौर्य कीर्ति और बलिदान की बलिहारी का इक़बाल सदा बुलंद रहेगा

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