संपादकीय:- प्राकृतिक संपदाओं के अपार भंडार, संकट में ऑक्सीजन गैस
भारत प्राकृतिक संपदाओं वाला देश है, प्राकृतिक संपदाओं के अपार भंडार होते हुए भी यहां लोग गरीब पाए जाते हैं। औद्योगिकीकरण के प्रारंभ के बाद लोगों की आर्थिक स्थिति में 'आटे में नमक ' के समान बदलाव प्रारंभ हुआ, लेकिन स्थिति "ज्यों की त्यों" जल, जंगल, जमीन, खनिज संपदा चाहे जिसकी बात करें सभी प्रचुर मात्रा में आवश्यकता से अधिक प्रकृति ने दिये, लेकिन हमारी भूल के कारण आज यह संपदा नष्ट होने के कगार पर आ गई, जो हमें ईश्वर ने दी थी । आज भारत की जनसंख्या 139 करोड़ है, लेकिन वन संपदा के नष्ट होने के कारण 139 करोड़ लोगों के पास ऑक्सीजन पहुंचाना बड़ा मुश्किल हो रहा है। 'ऑक्सीजन जीवन रक्षक' । जिस प्रकार से पानी से निकाली मछली तड़पती है, वैसे ऑक्सीजन के अभाव में व्यक्ति तड़पकर मरता है। एक क्षण भी ऑक्सीजन के बगैर नहीं रह सकता। भारतीय संस्कृति, समाज में पौधों का अपना महत्व रहा है। धर्म व धर्म ग्रंथों की बात करें तो भागवत गीता, कुरान, बाइबल, गुरु ग्रंथ साहिब सभी धर्म ग्रंथों, मानवता, संस्कृति को पढ़ें, सभी में पेड़ पौधों के प्रति उदारता दिखाई है।
जंगल को हमारे ऋषि आनंददायक कहते हैं, "अरण्यं ते पृथिवी स्योनमस्तु"। जंगल को सर्वाधिक रमणीय बताते हुए व्यक्ति को नियमों का पालन करने के लिए स्वयं को स्वच्छ व स्वस्थ रखने के लिए जंगल के नजदीक रहना अति उत्तम बताया। ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ, सन्यास आश्रम का सीधा संबंध वनों से है। इसके पालन के लिए व्यक्ति को समय-समय पर संस्कृति के साथ-साथ संस्कारों से जोड़ा गया, जिससे कि वह वनों को रमणीय बनाए रखे, उनका रक्षक बन कर रह सके। अशोक के शासनकाल में वनों की रक्षा श्रेष्ठ थी, चाणक्य ने अरण्यपालों की नियुक्ति की। भगवान श्री कृष्ण ने गोपालको को वृक्ष की पूजा करने का संदेश दिया था। हमारे शास्त्रों में एक वृक्ष की दस पुत्रों के समान तुलना की गई है।
पौधों की रक्षा के लिए जाति, समाज को धर्म, संस्कृति, संस्कारों के माध्यम से जोड़ा जाता आया है। प्रचुर मात्रा में ऑक्सीजन देने वाले पौधे को धर्म के साथ दहराडी प्रथा से जोड़कर उनकी रक्षा का जिम्मा सौंपा गया। पीपल, बरगद, तुलसी, बीलजैसे पौधों को काटना तो दूर उनकी लकड़ी भी घर तक जलाने के लिए नहीं लाई जाती थी। दहराडी वाले पौधों को उस गोत्र , समाज के लोग फल, पत्ते, लकड़ी आदि काम नहीं लेते, उनके विकास के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। यही नहीं पौधों के विकास के लिए बगीची, बनी, देव बनी, अंरण्य, गोरव्या आदि कई तरह के छोटे-छोटे जंगल तैयार किए जाते जो वातावरण को स्वच्छ बनाए रखने के साथ ऑक्सीजन की प्रचुर मात्रा में पूर्ति करते ।
चार से पांच दशक पूर्व तक वनों की रक्षा सरकार नहीं 'समाज ' करता । हर गांव में वन प्रेमी, प्रकृति प्रेमी जन्म लेता, समय के आधार पर व्यक्ति में संस्कार डालने के लिए धर्म, संस्कृति का सहारा लेकर जन जन तक अपनी आवाज पहुंचा कर जंगलों को बचाने का काम करते, समाज सुधारक, साधु संतों, प्रकृति प्रेमी सभी ने अपना दायित्व निभाने का काम किया और ऑक्सीजन के अपार भंडारों को बचाकर रखा। एक दशक पूर्व तक लोग जिस पौधे की दहराडी होती, उस पौधे के फल का जूस नहीं पिया करते थे और उसे हाथ में लेना बहुत बड़ा गुनाह मानते , लेकिन आज परिस्थितियां इसके बिल्कुल विपरीत हो गई । पेड़ों के प्रति संस्कार खत्म हो गए, आखिर इन ऑक्सीजन के भंडारों के प्रति हमारी उदारता खत्म क्यों हुई! बरगद जैसे विशालकाय पौधे नष्ट हो गए, पीपल के प्रति आस्था खत्म हो गई, वनों को आरी चला कर नष्ट किया, जिससे सैकड़ों प्रकार की वनस्पतियां व वन्य पौधों की प्रजातियां नष्ट हो गई, और चारों तरफ ऑक्सीजन के लिए त्राहि-त्राहि मच ना प्रारंभ हो गया, जैसा आज आंखों देख रहे हैं।
औद्योगिकरण के विकास के साथ कार्बनिक पदार्थो के अत्यधिक उत्सर्जन, बढ़ते प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, प्राकृतिक संसाधनों के साथ छेड़छाड़, अमानवीय गतिविधियों के चलते वन वन संपदा के साथ ही निजी स्वामित्व वाले पौधों पर आरी चलना प्रारंभ हुआ, परिणाम स्वरूप पौधों की अनेक दुर्लभ प्रजातियां तेजी के साथ नष्ट होना प्रारंभ होने लगी, और इसी का परिणाम है कि आज सांस लेना मुश्किल हो गया। औद्योगीकरण के चलते देश में 35% वन कम हुये है, रिजर्व वन क्षेत्रों की सीमा बढ़ती जा रही, नए पार्क विकसित किए जा रहे हैं फिर भी वन घट रहें हैं। इसके चलते पर्यावरण सुधार के कोई आसार दिखाई नहीं देते। परिणाम स्वरूप "ऑक्सीजन" संकट में है, अर्थात पूरा देश संकट में है। इसे बचाने के लिए व्यक्ति, समाज, सरकार, साधु संतों, पर्यावरण प्रेमीयों को आगे आने का सही समय है।
लेखन:- राम भरोस मीणा (प्रकृति प्रेमी)