राष्ट्रीय पार्कों के नजदीक औधोगीकरण दुखदाई -राम भरोस मीणा
राष्ट्रीय अभ्यारण्य आंक्सिजन के अपार भण्डार होने के साथ ही ग्राऊण्ड वाटर लेवल बनाने में अपनी अहम भूमिका निभाते हैं, इन्हें उन सभी गतिविधियों से दूर रखना नितान्त आवश्यक है जो पर्यावरण के लिए खतरा पैदा करती है या ख़तरा पैदा करने की सम्भावना बनती हों
प्राणों की रक्षा के लिए प्राणवायु अत्यन्त आवश्यक है, इसके बगैर एक सण भी व्यक्ति पशु पक्षी जीव जंतु जीवित नहीं रह सकते, और इस प्राण वायु के उत्पादन के लिए पेड़ पौधों झाड़ियों की आवश्यकता होती है, हम सब जानते हैं, समझते हैं कि आंक्सिजन उत्पादन पेड़ पौधे ही कर सकते हैं, इसीलिए इन्हें सच्चे मित्र कहां गया, क्योंकि प्राणों की रक्षा प्राणवायु मिलने से हों सकतीं हैं, और वह केवल पेड़ ही दें सकतें हैं। जहां वन या कहें वृक्ष कम होते वहां का प्राकृतिक वातावरण दूषित होता है, स्वच्छता सुंदरता खत्म होती है, दुर्गंध व रोगों का विस्तार होता है, जो सभी जीवों के लिए घातक होता है, इसके चलते पर्यावरण प्रेमियों द्वारा कहां जाता है कि धरती को कैंसर हों चुका, तापमान ( धरती का बुखार) बढ़ता जा रहा है, प्रदुषण के बढ़ते चारों तरफ दुर्गंध ही दुर्गंध है, और यह सब नाइलाज बिमारी धरती को लग गई तो फिर बचेगा कौन? आखिर प्रशन होना स्वाभाविक है। खेर जानते सभी है कि वन धरती के फेफड़े है। वनों वनस्पतियों को संरक्षण के लिए काम भी हो रहें हैं, स्वेच्छिक संगठन सामाजिक कार्यकर्ता पर्यावरण प्रेमी धार्मिक ट्रस्ट सरकारी एजेंसियां पंचायत राज विभाग, वन विभाग सभी हर वर्ष वर्षाकाल में देश में करोड़ों पौधे लगाते हैं और अरबों रुपए खर्च होते हैं, फिर भी वन घट रहें हैं। शहरों से पेड़ गायब हो रहे हैं, गांवों से हरियाली गायब हो रही है। फिर सोचना पड़ रहा है कि आखिर ऐसा क्यों? क्या कोई मोनिटरिंग कर रहा है? क्या कोई अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है? क्या किसी अच्छे कार्य करने वाले का सम्मान या प्रोत्साहित किया जा रहा है? नहीं। प्रोत्साहित हों रहें हैं जो भू कारोबारी हैं या नदी नालों जोहड़ पहाड़ों को अतिक्रमण कर माल लुट रहे हैं, अवैध कालोनियों को प्रोत्साहित कर रहे हैं, और यह सब चारों तरफ़ हो रहा है चाहे नगर महानगर छोटे शहर या गांव ही क्यों ना हो, जिसके चलते चारों तरफ़ वायु की गुणवत्ता खत्म हो रहीं हैं, आंक्सिजन कम पड़ने लगीं हैं।
बढ़ते शहरीकरण के साथ ग्रीन बैल्ट को ध्यान में रखना चाहिए लेकिन इस गोरखधंधे में कोई ध्यान नहीं देता और जब आपत्तियां मंडराने लगेंगी तब वन सम्पदा को ढूंढना मुश्किल होगा। जयपुर शहर में यह बड़ी समस्या है वहीं जयपुर से दिल्ली के मध्य बढ़ते शहरीकरण के साथ वन सम्पदा जोरों से नष्ट होती दिखाई दे रही है जिससे वायु प्रदुषण ( एक्यूआइ) जून 2023 में मानेसर 395, जयपुर 318, भिवाड़ी 436, दिल्ली 447 तक पहुंचा जो ख़तरनाक रहा। बढ़ते शहरीकरण, औधोगीकरण, परिवहन का दबाव के साथ संघनन आबादी क्षेत्र होने के कारण लोगों का श्वास लेना मुश्किल हो गया। बिगड़ते पारिस्थितिकी तंत्र को सुधारने के लिए शहरी क्षेत्रों में 15 से 21 प्रतिशत वनों का होन नितान्त आवश्यक है, लेकिन ये मात्र 05 प्रतिशत से भी कम रह गए जो आगामी समय में खतरे के साफ़ संकेत दे रहे हैं क्योंकि घटते जल स्तर से पीने योग्य पानी जहां खत्म हो रहा है वहीं प्राणवायु भी गायब हो रही है।अब आवश्यकता है हमें उस 07 करोड़ आबादी को आंक्सिजन की पूर्ति कर रहे 1213.34 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले सरिस्का राष्ट्रीय अभ्यारण्य को बचाने की जो दिल्ली, यूपी, हरियाणा, राजस्थान के कुछेक क्षेत्रों में आंक्सिजन की कमी महसूस नहीं होने दे रहा है। सरिस्का आंक्सिजन का हब है। यहां की स्वच्छता, सुन्दरता, मन को मोहने वाली हरियाली, ऊंचाइयों से गिरते झरनें, जानवरों व पक्षियों की आवाज ह्रदय को गदगद करने के साथ पोल्यूशन को कन्ट्रोल करने वाला प्रकृति प्रदत कंट्रोल रूम जो खुशहाल जीवन जीने के लिए प्राप्त हुआ हमें अपने आपको गौरवान्वित महसूस करना चाहिए। बात यही नहीं यहां लाखों लोगों को रोजगार का अवसर भी मिला है, मिलने की सम्भावना है और मिलता रहेगा सत्य है। अब सवाल यह उठता है कि बढ़ते जनसंख्या दबाव में नये जंगलों को बनने का सपना मात्र सपने हैं, हमें पुराने वनों को बचाने के साथ उनके वन क्षेत्रों में स्थापित होने वाली औधोगिक व खनन इकाईयों पर पुर्ण प्रतिबंध लगाना चाहिए, सरिस्का में मार्बल की 70 खनन इकाईयों पर प्रतिबंध लगा रखा है सही हैं क्योंकि इन सभी से सरिस्का व सरिस्का के वन्य जीवों के ख़तरे के साथ इकोलॉजिकल सिस्टम के गड़बड़ाने का पुरा अंदेशा है और चालू होने पर गडबडाएगा। यदि इन्हें बन्द रखा जाता है तो कोई बड़ा नुक्सान नहीं क्योंकि इन से कहीं अधिक राजस्व व रोजगार हम ग्रामीण पर्यटन व हाट बाजार विकसित कर प्राप्त कर सकते हैं। आगामी पर्यावरणीय परिस्थितियों को देखते हुए हमें चाहिए कि राष्ट्रीय पार्कों से 10 किलोमीटर की दूरियां तक वे सभी गतिविधियां नहीं होनी चाहिए जो वन तथा वन्य जीवों एवं वनस्पतियों को नुक्सान पहुंचाने का काम करतीं हैं।
पर्यावरणीय हालातो को ध्यान में रखते हुए यह पुर्व में शोधकर्ताओं, समाज विज्ञानीयो, पर्यावरणविदों द्वारा अवगत करा दिया गया है कि गिरते जल स्तर से पीने योग्य पानी जहां खत्म हो रहा है वहीं प्राणवायु की कमी भी महसूस हो रही है जबकि शुद्ध पानी और शुद्ध वायु प्रत्येक प्राणी के लिए नितान्त आवश्यक है इनके बगैर जीवन नामुमकिन है। अतः प्राण वायु के भण्डार मानें जाने वाले सरिस्का सहित सभी राष्ट्रीय अभ्यारण्यों को उन सभी गतिविधियों से बचाना आवश्यक है, जिनके द्वारा पर्यावरण में ज़हर घुलता हों अथवा विपरीत प्रभाव पड़ता हों उनसे बचाना बहुत जरूरी है। लेखक के अपने निजी विचार है।