व्यक्ति की हठधर्मिता और सुखते बांध सबसे बड़ा खतरा: नदियों नालों पर अतिक्रमण सरकारी विभागों की लापरवाही साबित

बांधों के रास्तों के अवरोध निजी लाभ पहुंचाने को लेकर बनें है.... प्राकृतिक वनस्पतियों के नष्ट होने से बदल रहा पारिस्थितिकी तंत्र सभी के लिए ख़तरा।

Sep 15, 2022 - 02:20
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व्यक्ति की हठधर्मिता और सुखते बांध सबसे बड़ा खतरा: नदियों नालों पर अतिक्रमण सरकारी विभागों की लापरवाही साबित
प्रतीतात्मक फोटो

प्राकृतिक संसाधनों के साथ बढ़ती छेड़छाड़, नदियों नालों के बहाव क्षेत्रों पर होते अतिक्रमण, वनों की कटाई, वन क्षेत्र से उजड़ती वनस्पतियां, बढ़ते प्रदूषण व व्यक्ति की हठधर्मिता ने बांधों, तालाबों, जोहडों के  साथ नदियों, नालों पर अतिक्रमण कर पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर दिया, जिसका अनुमान पिछले दो दशकों से राजस्थान के पुर्वी भाग में पड़ रहें सुखाड़ व पश्चिम भाग में आ रहीं बाढ़ से लगाया जा सकता है। पुर्वी भाग में ओस्त वर्षा 550 मीमी तथा पश्चिमी भाग में ओस्त वर्षा 250 मीमी होती रही, लेकिन मानव की भौतिकवादी सोच, बढ़ते अवैध खनन, प्राकृतिक सम्पदा पर चलतीं आरियों ने यहां के सिस्टम्स को बदलने कर बादलों को ना बरसने को मजबुर कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप पुर्वी राजस्थान में 400 से 450 मीमी वर्षा के साथ बादल सिमट गये जिससे यहां के 95  प्रतिशत  जोहड़, एनीकट, तालाब, बांध सूखे रह गए उन तक पानी नहीं पहुंच सका,  वहीं यहां के 80 प्रतिशत नदी नालों में वर्षा जल बहकर नहीं आ सका।
आखिर जहां पहाड़ी क्षेत्र है वहां भी नदीयां सुखी रह गई, नाले सिमट गये क्यों? बाणगंगा, साबी, रुपारेल जैसी सैकड़ों किलोमीटर दूर तक बहनें व एक से अधिक राज्यों में अपना वर्चस्व कायम रखने के साथ तबाही मचाने वाली नदियां आज सांसें गिन रहीं हैं। अलवर के एतिहासिक बांध जयसमंद पानी की बुंदों को तरस रहा है, बहाव क्षेत्रों में बिल्डर प्लाट बेच रहे हैं, कृषि फार्म बन रहें हैं, जगह जगह ऊंची पाल बनाकर पानी को रोकने के साथ इनकी सहायक छोटी नदियों व नालों का भोगोलिक मानचित्रों से ही अस्तित्व खत्म कर दिया। बहाव क्षेत्रों को विपरीत बना दिया। प्राकृतिक वनस्पतियों को नष्ट कर मैदान जैसे हालातो के साथ फार्म हाउस में बदल दिया। परिणाम यह निकल रहा की राजस्थान में आज एक दो बड़ी नदियों को छोड़ स्थानीय छोटी नदियों के धरातल पर  70 प्रतिशत अस्तित्व खत्म हो गये। भु गर्भ का जल स्तर पाताल पहुंच गया, कृषि व पीने योग्य मीठे पानी के भण्डार खत्म होने लग गये जिससे पानी को लेकर गृह कलह प्रत्येक गांव, कस्बे, शहरों सहित सम्पूर्ण देश में दिखाई देने लगे।

नदीयां पानी को परिवहन कर एक दूसरे स्थान पर पहुंचाने के साथ भु- गर्भ में पानी संग्रह  कर जल स्तर को बनाएं रखने, वनस्पतियों वन्य जीवों के संरक्षण, जलीय जीवों के संरक्षण तथा पारिस्थितिकी तंत्र को अनुकूल बनाए रखने का काम करतीं रहीं हैं, इनके साथ जहां जहां छेड़ छाड़ हुआं वहीं प्राकृतिक संतुलन गड़बड़ा गया, वनस्पतियों नष्ट हुई, वन्य जीवों पर संकटों के बादल मंडराने लगे, जल स्तर पाताल पहुंचा, पीने व कृषि योग्य पानी का संकट पैदा हुआ।यह सब व्यक्ति की हठधर्मिता व उसके निजी स्वार्थ की पूर्ति के चलते हुआ। प्राकृतिक संसाधनों के साथ छेड़छाड़ का यह जादू एक दिन या एक वर्ष का खेल नहीं है इसे चलते पुरे डेढ़ से दो दशक हो गये लेकिन ना समाज जगा ना सरकारें, जबकि इस प्रकार के काले कारनामों का प्रतिफल आम जनता को ज्यादा भुगतान पड़ेगा, जो आज की परिस्थितियों में देखा भी जा रहा है।
 एलपीएस विकास संस्थान के निदेशक एवं पर्यावरणविद् राम भरोस मीणा के अपने नदियों व बांधों के अनुभवों के तहत्  मानना है कि नदियां एक संजीव प्राणी की तरह होती है ऐ कभी मरती नहीं वर्षा ऋतु के बाद ये अंदर ही अंदर बहती रहती है, नदियों के रास्ते में अवरोध उत्पन्न होने से इनका आन्तरिक प्रवाह बदल जाता है और नदी क्षेत्र में पानी की समस्या उत्पन्न हो जाती है। आज बढ़ते शहरीकरण, औद्योगिकरण, जनसंख्या वृद्धि के साथ जल की उपलब्धता तथा आवश्यकता को मध्य नजर रखते हुए नदियों के पेटे में बने अतिक्रमणों, अवरोधों को नष्ट कर इन्हें स्वतंत्र बहनें के लिए छोड़ा जाए साथ ही इनके सहायक नालों, नदियों को अतिक्रमण व खनन से मुक्त करा कर पानी को आगे आने दिया जाए जिससे आगामी समय में बढ़ती पानी की किल्लत से बचने के साथ प्राकृतिक व मानव निर्मित आपदाओं से मुक्ति मिल सकें, बिगड़ते पर्यावरणीय सिस्टम को रोका जा सके तथा पुनः सभी प्राणियों के अनुकूल वातावरण का निर्माण हो सके व खोई हुई प्राकृतिक संपदाओं को पुनः तैयार कर सके, लेकिन यह सब व्यक्ति की हठधर्मिता से निजात पाने पर ही सम्भव होगा। लेखक के अपने निजी विचार है।

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