श्राद्ध पक्ष में पितरों को स्मरण कर कार्य करने से मिलती है सफलता
लक्ष्मणगढ़ (अलवर ) श्रद्धा से किया गया कार्य ही श्राद्ध है ।पितृपक्ष में पूर्वज या पितृदेव मात्र अपने परिजनों की भावनाओं और मन की श्रद्धा से ही प्रसन्न होते हैं। देवी-देवताओं अथवा पितरों के लिए अमीरी या गरीबी के कोई मायने नहीं होते, वे सिर्फ भक्त अथवा श्राद्धकर्ता की भावना देखते हैं। योग शिक्षक पंडित लोकेश कुमार ने बताया कि बस मन में सच्ची श्रद्धा एवं विश्वास होना चाहिए। जन्मदाता, माता-पिता एवं परिजनों को मृत्योपरांत लोग विस्मृत न कर दें इसलिए उन्हें याद कर श्रद्धांजलि का विधान पितृपक्ष में बनाया गया है।
पितृपक्ष में पितृगण ही आराध्य देवता माने गए हैं, पितरों की प्रसन्नता के बाद ही देवी-देवता प्रसन्न होते हैं, ऐसा धर्मशास्त्रों में वर्णित है। पितृपक्ष में पितरों को श्रद्धांजलि देने से न केवल पितरों बल्कि श्रद्धांजलि देने वाले का परिवार सहित कल्याण होता है। श्रद्धा से अपने पूर्वजों की स्मृति को ताजा करना ही श्राद्ध कहलाता है। पितृपक्ष में पितरों के निमित्त किया गया कोई भी धार्मिक कार्य, दान-पुण्य, कर्म व्यर्थ नहीं जाता।
शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में पितरों के निमित्त अपनी शक्ति, सामर्थ्य एवं पूर्ण श्रद्धा अनुसार करने वाले कार्य से सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं और घर-परिवार, व्यवसाय, आजीविका में हमेशा उन्नति होती है। जहां धनी एवं सम्पन्न व्यक्ति पितरों की प्रसन्नता के लिए धन का उपयोग करता है, वहीं कमजोर या गरीब व्यक्ति भी अपनी भावना एवं यथाशक्ति अनुसार पितरों की भक्ति कर उन्हें संतुष्ट कर सकता है। श्राद्धपक्ष में श्रद्धाभाव से तृप्त हुए पितर व्यक्ति को आयु, सन्तान, धन, विद्या प्रदान करते हैं, साथ ही सब प्रकार से बाधामुक्त कर कार्यों में सफलता प्रदान करते हैं।