देश मे संस्कार विहीन व स्वेदनाविहीन युवाओ की बढ़ती जमात - कैप्टन ताखर

Jan 13, 2023 - 02:20
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देश मे संस्कार विहीन व स्वेदनाविहीन युवाओ की बढ़ती जमात - कैप्टन ताखर

आज युवा दिवस है और स्वामी विवेकानंद जी की जयंती है । स्वामी विवेकानंद जी हमेसा युवाओ के प्रेरणा स्रोत व पथ परदर्शक रहे है। स्वामी विवेकानंद की बात किये बिना युवाओ की बात करना बे मानी है उन्होंने युवा अवस्था मे ही पूरे विश्व मे भारतीय संस्कृति व सभ्यता का लोहा मनवाया था । युवा अवस्था मे ही उन्होंने अमेरिका के शिकागो में वो कारनामा कर दिखाया कि पूरा विश्व स्तब्ध रह गया और वो भाषण भी भारतीय संस्कृति व भारतीय सामाजिक सभ्यता पर ही केंद्रित था । किसी विद्वान ने कहा है The youth of today's are the leaders of tomorrow लेकिन दुर्भाग्य से आज हमारे देश के युवा हमारी संस्कृति व सभ्यता से भटक गए है व पाश्चयातय संस्कृति की नकल करने लगे है ।
यहाँ बात कर रहे है आज के संस्कारविहीन व स्वेदनाविहीन युवाओ की जो हमारे भारतीये सभ्यता व समाज के लिए बहुत ही खतरनाक व शर्मनाक है । आज के हमारे युवा लड़के लड़किया जिस तरफ जारहे है वो बहुत ही खतरनाक व चिंतनीय है । आज के इस modern जमाने मे युवाओ की जो डगर है वह पुराने जमाने से बिल्कुल विपरीत है । हा में यहा यह जरूर स्वीकार  करना चाहूंगा कि समय के साथ साथ हर चीज में बदलाव होता है और होना भी चाहिए लेकिन ऐसा बदलाव जो अभी के युवा लड़के व लड़कियों में हुवा है वह कोई भी बुजर्ग महिला या पुरुष या कोई सभ्य समाज स्वीकार नही करना चाहेगा । 
समय के साथ साथ कपड़ो का पहनावा, शिक्षित लोगो का रहने का ढंग व बोलने का तरीका, व्याह शादी का तरीका जरूर बदलता है तथा हर जगह के अलग अलग रीति रिवाज होते है वो भी समय के साथ साथ बदलते है और बदलने भी चाहिए क्योंकि बदलाव समय की मांग होती है और जो लोग या समाज समय के साथ नही बदलता वो समय से पीछे रह जाता है लेकिन बच्चों के संस्कार व स्वेदना कभी भी नही बदलनी चाहिए और यदि बच्चों के संस्कारों में और संवेदना में बदलाव आ गया तो समझो ये समय का बदलाव नही है, बल्कि ये हमारी अगली पीढ़ी का पतन है और एक जिम्मेवार समाज की ये नैतिक जुम्मेवारी है कि वह इस पतन को रोके नही तो ये पूरी भारतीय सभ्यता ही समाप्त हो जाये गी तथा पाश्चत्य सभ्यता या संस्कृति हमारे समाज मे हावी हो जाएगी और उसका परिणम बहुत ही भयंकर होगा, क्यो की अभी हमारा देश या हमारा समाज इतना परिपक्व या आर्थिक रूप से इतना सक्षम नही हुवा है, की वो इस पश्चिमी संस्क्रती का बोझा उठा सके और उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चल सके । यह तो वही बात हुई कि "कउवा  चला हंस की चाल, ना हंस की चल सका और अपनी भी भूल गया "।
समय के साथ साथ लोगो का रहने का तरीका, बोलचाल, खानपान, पहनावा  बदलजाये तो किसी को कोई एतराज या ताज्जुब नही होना चाहिए, क्योंकि यह generation गैप के कारण होता है, लेकिन इस समय जो युवा लड़के लड़कियों  की  संस्कारो व सवेदनाओ में जो गिरावट आई है, वह असहनीय है ।  जैसे युवाओ के चरित्र में गिरावट,  युवाओ का नशे के प्रति लगाव, युवाओ का बड़ो के प्रति आदर सम्मान न रखना, युवाओ का बुजुर्ग माता पिता के देख भाल न करना ये ऐसे कारण है, जो हमारा समाज हजम नही कर पारहा है, और करना भी नही चाहिए क्योकि ये बड़ो की जुम्मेवारी है कि वो युवाओ को समझाए और उनकी जुम्मेवारी उनको बताए तभी तो ये हमारी भारतीय संस्क्रती बची रहेगी ।
चरित्र एक ऐसी सम्पति है जो एक बार जाने के बाद दुबारा वापिस नही आती इसी लिए किसी विद्वान ने लिखा है money is lost, nothing is lost, helth is lost, some things is lost, but character is lost, every thing  is lost. सभी नोजवान लड़के लड़कियों को अपने चरित्र पर विशेष ध्यान देना चाहिए व माता पिताओ को भी अपने बच्चों के चरित्र के प्रति सजग रहना चाहीये व उनकी रोज की गतिविधियों पर थोड़ी नजर रखनी चाहिये। नजर से मेरा मतलब यह नही की आप हमेशा उनकी जासूसी करे पर वो कहा जाते है, किस के पास जाते है, वापिस कब आते है क्या करते है, उनका friend सर्किल कैसा है, इस पर थोड़ी बहुत नजर जरूर होनी चाहिए ताकि वो जीवन के इस महत्वपूर्ण मोड़ पर बहक ना जाये ।
 युवाओ का नसे के प्रति लगाव जगजाहिर है कि कैसे सम्पन्न परिवारों के युवा (खासकर पंजाब, हरयाणा, दिल्ली व NCR के युवा) कैसे नसे के चंगुल में फंसकर अपनी सेहत खराब कर रहे है व अपना भविष्य बर्बाद कर रहे है। और आज तो ये नसे की लत हर वर्ग के युवाओ को अपनी गिरफ्त में ले रही है चाहे वह अमीर हो या गरीब । आज के युवावों में नशा करने की आदत को एक status के रूप में देखा जाने लगा है उनको इनके परिणमो की समझ नही होती। इसमें सबसे ज्यादा भूमिका निभाई है चुनाओ के समय मुफ्त बाटे जानेवाली सराब तथा व्याह शादियों में DJ पर नाचने की होड़ व  दोस्तो को दी जाने वाली पार्टियों ने इस आग में घी का काम किया है व लगभग हर युवा को अपनी गिरफ्त में ले लिया है । नसा हमेशा एक शॉक के रूप में सुरु होता है और थोड़े दिनों में युवाओ को हमेशा के लिए अपना आदि बनालेता है । जबतक परिवार या समाज को अपने बच्चों की आदत का पता लगता है तबतक बहुत देर हो चुकी होती है । इस लिए हम सब की ये नैतिक जिम्मेवारी है कि इसको  समय रहते रोका जाए नही तो ये बीमारी बहुत जल्दी महामारी का रूप लेने वाली है ।
युवाओ का बड़ो के प्रति आदर सम्मान तो जैसे बीते दिनों की बात हो गई है । आज यदि कोई महिला अपने छोटे बच्चे को गोद मे लेकर सफर कर रही है या कोई बुजर्ग महिला या पुरुष बस या ट्रैन में सफर कर रहे हो और उनको सीट नही मिली तो आज का युवा वर्ग उस बच्चे को गोद मे लेकर सफर कर रही महिला या बुजुर्ग को सीट देने को त्यार नही है जबकि हमारे सभ्य समाज मे अपने से बड़े को पहले बैठने के लिये कहा जाता है बशर्त है कि उस युवा ने अपनी सीट पहले से अधिक रुपये देकर बुक न करवाई हो । 0आज हर युवा अपने आपको बहुत समझदार समझता है जबकि सच्चाई कुछ और है जब भी कोई युवा किसी बुजर्ग महिला या पुरुष के पास बैठकर बात करेगा तो निश्चित तौर पर वह उन बुजुर्गों के जीवन के अनुभव व तजुर्बे से कुछ न कुछ सीखेगा लेकिन आज के युवा बुजुर्गों के पास बैठने से कतराते है और कई तो अपनी तोहीन समझते है । और यही से सम्स्या की सुरुवात होती है । जिसका समाधान दूर दूर तक नजर नही आरहा ।
और अंतिम बात है बूढ़े माता पीता की देखभाल ना करने की परवर्ती जो धीरे धीरे ही सही पर अब अपनी रफ्तार पकड़ रही है ।  आज के इस आर्थिक युग मे हर आदमी पैसे की पीछे भाग रहा है और इसमें वो अपने बूढ़े माँ बाप को अपना बोझ समझने लगा है तथा अपनी दिखावटी पोजीशन में उनको बाधक समझता है । अब आजके युवा अपने बच्चों की देखभाल के लिए आया को तो हर महीने 5000/- 7000/- रुपये दे सकता है जबकि वो आया बच्चों के साथ कैसे कैसे ब्यवहार करती है जो हम रोज अखबार में पढ़ते है व TV में देखते है, लेकिन वो अपने बूढ़े माँ बाप को अपने साथ नही रख सकता जो उनके बच्चों की मुफ्त में देखभाल बहुत अच्छे से कर सकते है और अच्छे संस्कार भी दे सकते है। वह उन 5000/-  7000/- रुपयो में अपने माँ-बाप की अच्छी सेवा भी कर सकते है और अपने बच्चों की अच्छे संस्कार व अपने पन के साथ लालन पालन भी करवा सकते है और वो भी बिना किसी जोखिम के। बच्चों के लालन पालन में जो रोल दादा दादी का वह तो भगवान का भी नही है, जो प्यार व अपनत्व बच्चों का दादा दादी के साथ होता है
 वह कभी भी दूसरे के साथ नही हो सकता, माता पिता के भी नही। जो संस्कार बच्चों में दादा दादी या नाना नानी के साथ रहने से आते है वो किसी भी स्कूल या किताब में नही मिलते । यहा में एक कहावत का जिक्र जरूर करना चाहूंगा की आम के आम और गुठलियों के दाम, इस कहावत को कोई भी आदमी अपने जीवन मे हमेशा चारीरतार्थ चाहता, केवल अपने माँ बाप को अपने बच्चों की देखभाल को छोड़कर , और इन सबके पीछे है युवाओ की ओछी सोच, झूँठा अहंकार , उनकी झूठी शान और सौकत तथा बड़ा बनने का दिखावा जो अपने बूढे माता पिता का अनादर तो कर ही रहे है एक ऐसी संस्कर्ति विकसित कर रहे है जो कल को उनको भी भुगतनी है और हमारे सामाजिक तानेबाने से कतई मेल नही खाती। इस पर जितनी जल्दी विराम लगाया जाए उतना ही कम है। आजकल तो सरकार को भी मातापिता के संरक्षण में कानून बनाने पड़ रहे है जिनकी किसी भी सभ्य समाज मे जरूरत नही होनी चाहिए लेकिन दुर्भाग्य से भारत जैसे देश मे जिस को ऋषियों की धरती कहा जाता है, जहाँ श्रवण जैसे बेटे पैदा हुए हो वहा भी आज ऐसे कानून की जरूरत महशूस हुई और कानून बनाना पड़ा जो बहुत ही दुखद व निंदनीय है । 
ये सभी बातें एक बार हमें सोचने पर मजबूर जरूर करती की क्या यह वाकई सिर्फ युवा पीढी की ही गलती है या पूरे समाज की तो में यहा यह निश्चित तोर पर कहना चाहूंगा कि ये सिर्फ अकेले युवा पीढी की गलती नही है इसमें हमने सबने अपना अपना सही रोल नही निभाया । इसमें सबसे ज्यादा रोल हमारी  सयुक्त परिवार की रीति-नीति को छोड़ कर एकाकी परिवार की परवर्ती ने निभाया है, हम सिर्फ और सिर्फ पैसे के पीछे भाग चले तथा अपने पत्नी व बच्चों को ही अपना परिवार मान चले जिसे हम खुद ही अपने से अलग होते चलेगये और कब हम अकेले होगये पता ही नही चला, जिसका परिणाम आज हम देख रहे है और भुगत भी रहे है ।
दूसरा इसके पीछे महत्वपूर्ण योगदान रहा "हमे क्या, हमारा क्या" की नीति का, पहले गांवो में कोई युवा गलत रास्ते पर जाता था तो लोग उसको रोकते थे व टोकते थे कि तुम यह क्या कर रहे हो और क्यो कर रहे हो , व फिर भी नही मानता तो उसके माता-पिता या उसके परिवार के मुखिया को कहते थे कि आपका बच्चा गलत रास्ते पर जारहा है, तो उसके माता-पिता उस बात को अपने लिए सीख मानते थे चाहे बतानेवाला उसका दुश्मन ही क्यो न हो और अपने बच्चे को सही रास्ते पर चलने को मजबूर करते थे ताकि वह भविष्य में कोई उल्हना न लेकर आये, लेकिन  इस " हमे क्या व हमारा क्या" नीति ने सामाजिक तानेबाने का ऐसा बंटाधार किया है कि अलबत्ता तो कोई किसी को कुछ कहेगा ही नही और किसी सज्जन ने कुछ कह दिया तो उसके घर परिवार वाले उसके पीछे पड़ जायेंगे की ये हमारे बच्चों को बदनाम कर रहा है, और जबतक घर परिवार वालो को उसकी पूरी असलियत पता लगेगी तब तक पानी सिर से ऊपर आचुका होता है, फिर तो वही बात होगई की "अब पछताए क्या होत है जब चिड़िया चुग जगई खेत"।
अंत युवा दिवस व स्वामी जी की जयन्ती पर मे सभी से यही अनुरोध करना चाहूँगा की अभी भी समय रहते अपने सयुक्त परिवार की रीति-नीति पर चलकर व "हमे क्या व हमारा क्या" की नीति को त्याग कर एक सभ्य समाज व सही सोच की नीति अपनाकर युवाओ को समझने व सही रास्ता दिखाने की आवश्यक्ता है ताकि ये ऋषियों की भूमि अपनी पुरानी पहचान बना सके । जय हिंद । 

(ये लेखक के अपने विचार है)

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