मानवीय हस्तक्षेपों से प्राकृतिक संसाधनों को बचाना जरूरी
बड़ते मानवीय दबाव, प्राकृतिक संसाधनों के साथ छेड़छाड़ से पैदा हुए प्राकृतिक वातावरण में बदलाव से पारिस्थितिकी तंत्र के बदलने का खतरा बढ़ने के साथ भूगर्भीय संरचनाओं में बदलाव आने लगा। पिछले पांच दशकों में धीरे-धीरे आए बदलाव से जहां प्राकृतिक संसाधनों पर खतरा बढ़ा वहीं मानव स्वयं भी इस मकड़जाल में फसता दिखाई देने लगा । ग्लोबल वार्मिंग से आज हिमालय ख़तरे में है, ग्लेशियर पिघल रहे हैं, वनस्पतियां नष्ट होती जा रही है। 1970 से पुर्व हिमालय के ग्लेशियर दस इंच के हिसाब से पिघल रहे थे वो 2000 के बाद बीस इंच प्रति वर्ष के साथ पिघल लगें। आज हिमालय के 650 ग्लेशियारों पर खतरा मंडरा चुका, 200 से अधिक झीलों में पानी अधिक आने से उनके टुटने की आशंकाएं बढ़ने लगीं, नन्दा देवी ग्लेशियर के फटने से धोली गंगा बांध के टुटने से उपजी त्राहि इसका ताजा उदाहरण है।
मानवीय गतिविधियों के बढ़ते धरती भी धंसने लगी आई आई टी मूम्बई, केम्ब्रिज के अध्यन व विज्ञान की प्रतिष्ठित पत्रिका नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया की दिल्ली स्थित राजघाट से 100 किलोमिटर तक के क्षेत्र में धरती धंसने की आशंकाएं बड़ी है। हिंदूस्तान टाईम्स में पारस सिंह के हवाले से छिपें लेख में साफ बताया की इंटरनेशनल एयरपोर्ट से मात्र आठ सो मिटर स्थित 12.5 वर्ग किलोमीटर इलाके में जमीन के फटने, धंसने की आशंकाएं ज्यादा बढ़ने लगी। जिसको स्पष्ट करते हुए समाज विज्ञानीयो, पर्यावरणविद्, जल विशेषज्ञों ने कहां कि यह धसाव भू गर्भ से जल के अत्यधिक दोहन व मानवीय दखलन से पैदा हों रहा है।
राजस्थान में नदियां, झीलों , राष्ट्रीय उद्यानों पर खतरा बढ़ने से स्थानीय व प्रवासी पक्षियों, वन्य जीवों को खतरा बढ़ गया। नदियां खत्म होकर नाले उफान पर आने लगें, जंगल नष्ट कर शहर आबाद हुए, कृषि भूमि पर औधौगिक ईकाईयों का हस्तक्षेप बड़ा, पहाड़ों पर भूगर्भीय खनन से प्राकृतिक संतुलन जो प्रकृति ने स्वयं अपने हाथों बनाया उसे मानव द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के नाम पर नष्ट करने के परिणाम स्वरूप पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव पैदा हुआ, मानव सहित सम्पूर्ण संजिव जगत के लिए घातक है।
विश्व में आज प्रत्येक मानव द्वारा चिंता का विषय बन गया कि मानव के प्राकृतिक संसाधनों के प्रति अनैतिक शौच, बढ़ते बारूदी बाजार, वैज्ञानिक प्रयोग के साथ औधोगिक व रासायनिक प्रयोगशालाओं से खतरा बढ़ना तेज़ हुआं। बढ़ते मानवीय खतरों से स्वयं मानव, प्राकृतिक संसाधनों, वन्य-जीवों को बचाने के साथ प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने के लिए सरकार व समाज को अपनी नितियों में बदलाव करना होगा, जिससे प्राकृतिक संतुलन बना रहने के साथ पारिस्थितिकी तंत्र भी बना रह सके, महामारियों, प्राकृतिक आपदाओं से सम्पूर्ण संजिव जगत को बचाया जा सके।