जानिए ध्यान का वास्तविक अर्थ क्या है, आचार्य नवीन की कलम से
ध्यान की इस परिभाषा में सबसे पहला अर्थ है- "अस्थिरता से स्थिरता की ओर"। स्थिरता किसी को भी बाहर नहीं मिलती, अपने भीतर मिलती है। जो भीतर से स्थिर नहीं वह बाहर से भी स्थिर नहीं हो सकता, चाहे उसे कुछ भी मिल जाये। ठहराव ही तो जीवन का लक्ष्य है। क्योंकि अंतहीन गति तो कोल्हु के बैल की होती हैं।
ध्यान की इस परिभाषा में सबसे पहला अर्थ है- "अस्थिरता से स्थिरता की ओर"। स्थिरता किसी को भी बाहर नहीं मिलती, अपने भीतर मिलती है। जो भीतर से स्थिर नहीं वह बाहर से भी स्थिर नहीं हो सकता, चाहे उसे कुछ भी मिल जाये। ठहराव ही तो जीवन का लक्ष्य है। क्योंकि अंतहीन गति तो कोल्हु के बैल की होती हैं।
अब चूँकि स्थिरता बाहर नहीं है इसलिए ध्यान का दूसरा अर्थ है- "बाहर से अन्दर की ओर"। यहाँ अन्दर से अभिप्राय शरीर के भीतर से है। लेकिन शरीर के भीतर कहाँ ? दरअसल हमारा शरीर कुदरत की बेहतरीन इंजीनियरिंग है। यही वो अद्भुत प्रयोगशाला है जिसके भीतर ध्यान का प्रयोग किया जाता है। इसके दो भाग है- एक आँखों से नीचे और दूसरा आँखों से ऊपर। इस दोनों की दहलीज को भृकुटी अर्थात आज्ञाचक्र कहते है। इसे तीसरा नेत्र और दसवां दरवाज़ा भी कहा जाता है। यही ध्यान केन्द्रित करने का सबसे उपयुक्त बिंदु है। चूँकि यह बिंदु हमारे भीतर है, इसीलिए ध्यान का अर्थ हैं बाहर से अन्दर की ओर।
अब ध्यान की इस परिभाषा का तीसरा अर्थ है- "नीचे से ऊपर की ओर"। दसवां दरवाज़ा हमारी सभी ज्ञानेन्द्रियों के शिखर पर दोनों भवों के मध्य में है, अतः ध्यान का अर्थ हैं नीचे से उपर की ओर।
ऊपर तो वही आएगा जो हल्का होगा, अतः ध्यान का अगला अर्थ है- "स्थूल से सूक्ष्म की ओर"। जब हम एक पहाड़ पर चढ़ते है तो हम अपने साथ बहुत सामान ले लेते है, लेकिन धीरे-धीरे पता चलता है की इतने सामान की जरूरत नहीं थी क्योंकि अब वो बोझ लगने लगता है। जैसे जैसे हम शिखर के नज़दीक पहुचते जाते है, हम बहुत कुछ छोड़ चुके होते है। अध्यात्म में छोड़ने से मतलब वस्तुओं के त्याग से नहीं, वस्तुओं की आसक्ति के त्याग से हैं।
ध्यान की इस परिभाषा का अंतिम पड़ाव हैं- "जड़ से चेतन की ओर"। मनुष्य जड़ और चेतन का मिश्रण हैं। जड़ ओर चेतन की गांठ खोलना ही ध्यान का लक्ष्य हैं। जब ध्यान भृकुटी पर पूरी तरह एकाग्र हो जाता हैं तो मनुष्य आनंद की परम चेतन अवस्था में पहुच जाता है। यही अवस्था हमारी सच्ची विरासत है और हमे हर हाल में इसे पाना चाहिए। इस परम चेतन अवस्था को योगदर्शन में तुरियावस्था कहते है और इसके पथिक को श्रेयमार्गी कहते है। आइए हम भी प्रतिदिन एक घड़ी (24 मिनट) ध्यान करें।
इस विषय में अधिक जानकारी के लिए देखें - acharyacafe.blogspot.com