विकासवाद की परिभाषा बदलना आज की आवश्यकता - मीणा
विकासवाद के साथ प्राकृतिक संसाधनों पर हों रहे अत्याचार से प्रकृति ने अपना रूप बदलना प्रारम्भ कर दिया है और यह स्वाभाविक है कि यदि हम किसी को कोसेंगे-डांटेंगे ,छेड़ेंगे , उस दशा में वो ज़वाब में हमारे साथ वैसा ही व्यवहार करेगा, चाहे वह जानवर हों, मानव हों, प्रकृति हो।यह सब करने की भी एक सीमा होती है, लेकिन आज हमने हद से ज्यादा कुछ वह सब कर दिया जिसका परिणाम भी हमें भुगतना ही है। यह सब भलीभांति जानते हैं लेकिन स्वार्थ के वशीभूत हो हम सब उन परंपराओं-मान्यताओं जो प्रकृति संरक्षण का संदेश देती थीं, उन सभी को हम भुला बैठे और भौतिक सुख संसाधनों की अंधी चाहत के जाल में बंधे चले गये। नतीजतन इनके संरक्षकों को हमने दुश्मन समझ कर हमेशा के लिए खत्म करने का मानस बना लिया ।आज उसी का दुष्परिणाम हमें भोगना पड़ रहा है। कहावत है कि करेगा कोई भरेगा कोई, लेकिन यहां तो उसका खामियाजा सभी को भुगतना पड़ रहा है क्योंकि यह व्यक्तिगत मामला नहीं है, वह तो सार्वजनिक क्षति है।
गौरतलब है कि प्रकृति सभी के लिए है और सभी को उसके हानि- लाभ का हिस्सा बराबरी से लेना भी होगा। जैसा कि आज प्रकृति के बदलते रुख़ से उसके प्रभाव के नतीजा दिखने लगें हैं। अब विचारणीय यह है कि इसकी मार से कौन बच सकेगा? अकाल ,बाढ़, ओलावृष्टि, अतिवृष्टि, पानी की कमी ,आक्सिजन की कमी, ग्रीन हाउस गैसों का प्रभाव,धरती का बढ़ता तापमान, हिमालय के ग्लेशियरों से बर्फ का तेजी से पिघलना, जल का पाताल पहुंचना आदि आदि।
दरअसल पृथ्वी पर उत्पन्न संकट एक दिन, महीना, वर्ष का नहीं, यह सैकड़ों वर्षों से मानव के बदलते रुख़ का परिणाम है ।शहरों का विकास हुआं लेकिन पेड़ पौधों, जोहड़, तालाब, गोचर, नदियों, नालों, देव बनियों को हम नहीं बचा सके आज बढ़ती आबादी के लिए जल की पूर्ति के लिए जलीय संसाधनों को बचाना पहली प्राथमिकता है। सब जानते भी हैं की जल है तो कल है। लेकिन सभी प्राकृतिक जल स्रोत चाहें नदी, नाला , बांध , चेकडैम एनीकट जोहड़ ,तालाब आदि जो भी हैं, सब के सब अतिक्रमण की चपेट मे हैं। यही नहीं नदियों को स्वार्थ के चलते हमने नालों में तब्दील कर दिया, औद्यौगिक इकाईयों द्वारा पाताल तक के पानी को खींच लिया, नतीजा यह है कि मई का महीना प्रारम्भ होते ही महानगरों, नगरों, शहरों, कस्बों, गांवों में पीने के पानी की गंभीर समस्या पैदा हो गयी है। नतीजतन इससे 20 से 30 प्रतिशत पानी की आपूर्ति में कमी आ गयी है और वह भी गुणवत्ता में ठीक नहीं है। शहरीकरण के साथ प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने के लिए जल स्रोत सुरक्षित होने के साथ 15 प्रतिशत वनों की आवश्यकता है । वहीं आज ये कंक्रीट के महलों के मध्य 5 से 7 प्रतिशत ही बचे हुए हैं । जबकि जनसंख्या वृद्धि के साथ संतुलन बनाए रखने के लिए यह 22 प्रतिशत होने चाहिए। यह सच है कि प्राण वायु की गुणवत्ता पेड़ पौधे से ही बनती हैं जो आज खत्म होते जा रहे हैं। इससे वायु से आंक्सिजन कम पड़ने के साथ गुणवत्ता खत्म होती जा रही है।जो आज मानव ,जीव -जंतुओं ,पशु पक्षियों,कीट -पतंगों के अनुकूल नही रहीं है। आक्सिजन की मात्रा कम होने के कारण वातावरण में जहरीली गैसों, धूल, प्लास्टिक के हानिकारक पदार्थों का बोलवाला है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए एक्यूआई 0 से 100 के मध्य रहना जरूरी है लेकिन यह भी आज 100 से 500 के मध्य है जो ख़राब व गम्भीर हालातों में बना हुआ है। आज गांवों में भी वायु की गुणवत्ता संतुलित मात्रा अच्छी नहीं है। जल में घुल रहे हानिकारक पदार्थों और गैसों से जलीय जीवों को आक्सिजन की पूर्ति नहीं हो रही है। नभ में ऊंचाई तक उड़नेऔर आकाश छूने वाले पक्षियों की अनेक प्रजातियां लुप्त हो गईं हैं। इन हालातों के चलते आज मानव स्वयंदुःखी है। यह सत्य है कि यदि हम गलत रास्ते जाएंगे तो कांटे तो चुभेंगे ही। राजस्थान के महानगर जयपुर का जायजा लें तो वहां प्लास्टिक कचरे का पहाड़ बन गया है जो वर्तमान में सिरदर्द बना हुआ है। कूडे़-कचरे के पहाड़ से जहरीली गैसों के निकलने से धरती के गर्भ का पानी ज़हर में बदल रहा है। आज समस्या यह है कि धरती बंजर हो रही है। जल संकट के चलते लोग घर छोड़ने को मजबूर हो गए हैं। यह स्थिति जयपुर के साथ देश के। अन्य 22 बड़े शहरों की है । राजस्थान के शहरों में 26 लाख मीट्रिक टन प्लास्टिक कचरा 281 एकड़ ज़मीन पर कब्जा जमाये है। अन्य छोटे शहरों की बात अलग है। दुख है कि अभी भी किसी को चिंता नहीं है कि कहां कितना कचरा फैला है और लोगों पर उसका क्या प्रभाव पड़ रहा है।हमारे यहां आंकलन तब होता है, जब परिस्थितियां बिलकुल विपरीत हो जाती हैं। समस्या विकट यह है कि ये हालात देश दुनिया के सभी शहरों की है।
बढ़ते ख़तरों को लेकर राजस्थान में भिवाड़ी व अलवर शहर में पायलट प्रोजेक्ट के तहत किए सर्वे में 15 महीनों में जहरीली गैसों के प्रकोप से पीड़ित अस्थमा के 28,500 गम्भीर रोगी मिले जबकि पूरे ज़िले में इसके चार गुणा से भी अधिक रोगी मिले हैं जो झोलाछाप डॉक्टरों से अपना इलाज करा रहे हैं। ये आंकड़े 13 बड़े अस्पतालों के हैं, पूरे ज़िले, राज्य व देश में सरकारी व ग़ैर सरकारी लाखों की तादाद में हास्पिटल हैं, यदि उन्हें शामिल कर आंकड़े देखें तो आंकड़ा लाखों को पार कर जायेगा। इसके साथ मानसिक रोगी, चर्म रोगी, टी बी के रोगी भी बढ़ते प्रदूषण, सड़कों पर उड़ती धूल और चिमनियों से निकलती जहरीली गैसों के परिणाम हैं। यदि हम इन सभी को आधार मानते हुए सम्पूर्ण राजस्थान या भारत की बात करें तब पता चलता है की हमारे पर्यावरणीय हालात क्या हैं और हमें क्या और कितनी मात्रा में सुधार की आवश्यकता है। पिछले दिनों क्रास डिपेंडेंसी इनिशिएटिव समूह की जारी रिपोर्ट जो सकल घरेलू जलवायु जोखिम में 2050 तक दुनिया भर के 2600 से अधिक शहरों के निर्मित पर्यावरणीय हालातों को दर्शाते है, से साफ़ होता है कि हमें समय रहते प्राकृतिक संसाधनों पर अत्याचार बन्द करने के साथ उनके संरक्षण में जुटना होगा, विकासवाद की परिभाषा को बदलना होगा, जल जंगल जमीन नदी पहाड़ के संरक्षण के कामों में तेजी लानी होगी, औद्यौगीकरण के दुष्प्रभावों को देखते हुए नई औद्योगिक नीति बनानी होगी, परिवहन के साधनों में पैट्रोल व डीजल में बदलाव लाना होगा, जिससे बदलते पारिस्थितिकी तंत्र को रोका जा सकेऔर प्राकृतिक संतुलन कायम किया जा सके जिससे सभी जीव जंतु, कीट-पतंगे, पशु- पक्षी, मानव इन मानव निर्मित परिस्थितियों से उत्पन्न आपदाओं से बच सकें, अन्यथा वह समय दूर नहीं कि जब हम सबका प्राकृतिक आपदाओं से बच सकना असंभव हो जायेगा।