पानी का संग्रह ग्रामीण व्यवस्थाओं से बेहतरीन और किसी से नहीं
आज समाज के जो सच्चे इंजीनियर थे वो नहीं रहें और ना ही वह समाज तथा समय रहा जो पानी को लेकर जागरुक था। आज समय बदल चुका है, नये इंजीनियर आ चुके हैं , पानी के प्रबंधन की जिम्मेदारी ग्रामवासियों के हाथ से ग्राम विकास अधिकारियों के पास चली गई है! पंचायत में बैठ कर प्रस्ताव लिए जाते हैं, ओर बजट की मांग होते ही एस्टिमेट बनवा कर काम चालू कर दिया जाता हैं।
थानागाजी अलवर
यह बात हम सब जानते भी हैं! कि मौसम चक्र हमेशा-हमेशा चलता रहता है, ओर प्रकृति ने मानव को ॠतुओं के साथ चलने के लिए बाध्य भी किया है! सर्दी , गर्मी, और वर्षा। हर कोई उसके नियमों का उलंघन नहीं कर सकता, पालन ही करना होता है !और जों पालन नहीं करता, वह प्रकृति ही नहीं सजीव जगत का सबसे बड़ा दुश्मन होता है। लेकिन पानी के काम में सभी को जुटना होगा , यह धर्म व आस्थाओं के साथ जुड़ा हुआ है।
इस समय जो मौसम है वो गर्म हैं, और इसके आगे वर्षा ऋतु वर्षा ऋतु प्रारंभ होने से पहले ही पानी की व्यवस्थाओं में हम सब जुटते चले जाते हैं, तथा पानी के जों सच्चे श्रोत है उन्हें नहीं समझ पा रहे हैं ! क्योंकि आज पानी संग्रह करने की अनेको तकनीकी लेकर हमारे इंजीनियरिंग किये हुए अधिकारी आ गये, जिन्होंने पुस्तिकाओं से अध्यन किया है, फिल्ड वर्क नहीं ! यहां लगभग अधिकारी व सहायक दोने की स्थिति समान है! तीन ,चार दसक से पहले तक गांव के लोग ही इंजीनियर हुआ करते थे, ओर पानी के संग्रह करनें की पुरी जिम्मेदारी उन्ही की, उन्ही के हाथ होती थी पानी के संरक्षण की पुरी जिम्मेदारी परिवार, समाज, गांव व शहर के लोगों की अपनी थी! और चौपाल पर बैठे बुजुर्गों द्वारा गांव के अपने भु गर्भीय अनुभवों को काम में लेते हुए ,अपनी आवश्यकताओं व क्षमताओं के आधार पर पानी के पात्रों को संजोया जाता था! जोहड़, कच्चे बांध, चेकडे के साथ ही खेतों की डोल की मरम्मत का कार्य किया जाता था; चारों ओर पौधे लगाए जाते, जिसमें नीम, गुलर, पिपल, बरगद,आम जैसें अनेकों प्रकार के फल व छाया के साथ साथ बादलों को रोकने का काम करते थे, जिससे गांव का अधिक से अधिक पानी गांव में ठहर जाता था , और हर तीन साल में उस पानी के पात्रों की सफाई सम्पूर्ण गांव के लोगों द्वारा कि जाती थी, जो संग्रहित किया पानी काल , दुकाल ओर त्रीकाल के समय काम आता था।
आज समाज के जो सच्चे इंजीनियर थे वो नहीं रहें और ना ही वह समाज तथा समय रहा जो पानी को लेकर जागरुक था। आज समय बदल चुका है, नये इंजीनियर आ चुके हैं , पानी के प्रबंधन की जिम्मेदारी ग्रामवासियों के हाथ से ग्राम विकास अधिकारियों के पास चली गई है! पंचायत में बैठ कर प्रस्ताव लिए जाते हैं, ओर बजट की मांग होते ही एस्टिमेट बनवा कर काम चालू कर दिया जाता हैं। ग्रामीणों का श्रम व पैसा नही लगा , सरकारी विभागों के अधिकारी ही जांच कर सब ठिक कर जाते हैं! आख़िर उससे हुआ क्या? मात्र एक अवरोध बहाव क्षैत्र में पैदा करने से लाभ क्या हुआ? हर विधानसभा क्षेत्र में करोड़ों, अरबों रुपए खर्च किए जाते हैं, फिर भी पानी की किल्लत खत्म नहीं होती, आखिर समस्या का समाधान कब होना है, किसी के पास जवाब नहीं! लेकिन समस्या की जड़ पानी की सामाजिक व्यवस्था में पैदा हुईं खामीयां है ! जो पानी की व्यवस्था की जिम्मेदारी से दुर हुआ है! गलतीयां समाज की ही नहीं सरकार की भी बराबर हैं ! क्योंकि पानी की व्यवस्था की जिम्मेदारी सरकार ने स्वयं अपने हाथों में ले रखी है। आंफिस में बैठ कर प्रस्ताव लेते हैं, मन चाहें जहां कच्चे, पक्के बांध, चेकडैम, एनिकट बना देते हैं! वर्षा नहीं होने पर खड़े दिखाई देते हैं और वर्षा तेज होने पर बह कर चले जाते हैं। जिसके परिणामस्वरूप पानी की किल्लत बडती जाती हैं ओर चारों ओर त्राय त्राय होना प्रारम्भ हो जाता हैं।
पानी के सच्चे इंजीनियर जो पानी के प्रति चिंतित हुआं करते थे, घर घर जाकर लोगों को तैयार कर चौकड़ी निकलवाते थे ; जल की सामाजिक जिम्मेदारी से दुर हो गए! जिसका ही परिणाम जल की बढ़ती किल्लत हैं। हमें सामाजिक जिम्मेदारी समझते हुए पुनः पानी के कामों में बादल बरसने से पहले जुट जाना चाहिए; ओर अधिक से अधिक पानी को अपने गांव की सीमाओं के भीतर ही संग्रहीत करने हेतु काम प्रारंभ कर, उन सभी डोल, बाउंड्रीयों पर पौधें रुपाई व बीज बो देना चाहिए जिससे बादल प्रसन्न होकर अधिक बरसने के साथ जल स्तर बढ़ सके और हम आनन्द महसूस कर सकें। पानी हमें हमारी सामाजिक जिम्मेदारी समझ कर उसके प्रबंधन, संरक्षणकी व्यवस्था करनें से ही हमेशा प्राप्त हो सकेगा ।
लेखक- राम भरोस मीणा
Email- rambharosm@yahoo.com