त्याग, समर्पण और भारतीयता की मिसाल हैं कैलाश सत्यार्थी
छह साल पहले आज के दिन ही कैलाश सत्यार्थी को नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। कैलाश सत्यार्थी भारत में जन्में पहले ऐसे खांटी भारतीय हैं जिन्हें दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उनके बोल-चाल और पहनावे-ओढ़ावे से लेकर रहन-सहन और आचार-विचार तक में भारतीयता की झलक मिलती है। बहुत कम लोगों को यह पता है कि खादी का कुर्ता-पाजमा पहनने वाले और नियमित वेद मंत्रों के उच्चारण के साथ हवन करने वाले सत्यार्थी ने विश्व का अपना यह सर्वोच्च सम्मान राष्ट्र को समर्पित कर दिया है।
ये चार तस्वीरें कैलाश सत्यार्थी के अपनी संस्कृति, अपनी सभ्यता, अपनी मात्रभूमि के प्रति त्याग, प्रेम और समर्पण को दर्शाती हैं। पहली तस्वीर हर भारतीय को गौरवान्वित करती है, जिसमें वे दुनिया का सर्वोच्च सम्मान ग्रहण कर रहे हैं। सन 2014 में आज ही के दिन नोबेल शांति पुरस्कार ग्रहण समारोह का वह अदभुत क्षण था जब सत्यार्थी ने अपने भाषण की शुरुआत हिंदी और संस्कृत के वेदमंत्रों से की थी। इस अवसर पर हस्ताक्षर भी उन्होंने हिंदी में किया। दूसरी तस्वीर हर देशवासी को भाव विभोर कर देगी। जैसे ही सत्यार्थी नोबेल पुरस्कार लेकर भारत की धरती पर उतरे उन्होंने उसे मातृभूमि को भेट चढ़ा कर सादर नमन किया।
तीसरी तस्वीर राजघाट स्थित गांधीजी की समाधि की है। यह तस्वीर साबित करती है कि श्री सत्यार्थी मां भारती के सच्चे सपूत हैं और प्रचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति के मूल तत्व सत्य, अंहिसा, प्रेम और करूणा के उपासक हैं। जबकि चौथी तस्वीर नोबेल पुरस्कार राष्ट्र को समर्पित करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति स्वर्गीय श्री प्रणव मुखर्जी को प्रदान करते हुए की है। श्री सत्यार्थी नोबेल पदक को राष्ट्रए की धरोहर मानकर महामहिम श्री प्रणब मुखर्जी को कबीर की इन पंक्तियों के साथ सौंप देते हैं कि ‘‘मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर। तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मोर॥’’ श्री सत्यातर्थी का नोबेल पदक आज भी भारत के नाम राष्ट्ररपति भवन में सुरक्षित है। नोबेल पुरस्काैर के इतिहास में यह पहला अवसर है जब उसके किसी विजेता ने उस पर नितांत निजी हक नहीं जताकर, उस पर देश के सभी लोगों का हक माना। भारत की महान परंपरा को जिस त्यातग और समर्पण के लिए जाना जाता है, श्री सत्याकर्थी उसकी जिंदा मिसाल हैं। भारतीयता उनके लिए कोरी भावुकता नहीं है, बल्कि वह त्याग, समर्पण, प्रेम, मूल्यि और निष्ठाि है जिसका निर्वहन हमारे ऋषि-मुनि किया करते थे।