नदी जीवन्त आत्मा है केवल नदी नहीं- मीणा
भारतीय दर्शन शास्त्रों, धर्म ग्रंथों के साथ ही सभी धर्मों हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, जैन, बौध धर्म में नदी का वर्णन एक जीवन्त आत्मा के रूप में किया गया । नदी को मां का दर्जा दिया, सदा नीर होने पर इसे अजर अमर पवित्र निर्मल जल धारा वाली कहा गया। नदी छोटी हो या बड़ी इससे उसके महत्व को नहीं आंका गया , बल्कि नदी के समस्त गुणों का अवलोकन कर उसकी व्याख्या एक जीवित आत्मा के समान की गई। धर्म शास्त्रों में जितना महत्व गंगा का है उतना ही यमुना गोदावरी कावेरी कृष्णा का रहा, इनके समान ही महत्व स्थानीय छोटी नदियों का बना उन्हें पूज्य माना गया उनके प्रति आस्था बनी जो हमेशा हर जगह देखने सुनने को मिलती, नदियों से सभ्यता संस्कृति का विकास हुआ, सिन्धु घाटी सभ्यता इसका उदाहरण है।
नदी का महत्व पानी से ही नहीं लगाया जा सकता बल्कि नदी के उन सभी गुणों से लगाया जाना तय है जिनसे धरा पर मौजूद सभी सजीव , निर्जीव, परपोषी(जल चर,थल चर,नभ चर) जीवो के साथ वनस्पति को जीवित रहने का बल प्राप्त होता है। नदी अपने जल को कभी नहीं पीती हमेशा दूसरों के उपकार का कार्य करती रही जैसे एक कुटुंब, परिवार के व्यक्ति,जानवर, पशु पक्षी अपनों के लिए करता उसी प्रकार से नदी धरती पर मौजूद सभी जीवो, वनस्पतियों के संरक्षण का कार्य करती क्योंकि यह एक "जीवित आत्मा" है इसे समझने, परखने, खोजने की आवश्यकता है जो आज से एक हजार वर्ष पूर्व पुरा हो चुका, लेकिन पिछले तीन-चार दशक में समाज सरकार ने अपने मोनोपोलोशी के चलाते घर्णा से देखा जो आज सभी के सामने सभी को दिखाईं दें रहा।
प्राकृतिक संसाधनों (जल, जंगल ,जमीन) के साथ छेड़छाड़ करना गुनाह है गुनाह माना जाता उसी प्रकार से नदी के साथ छेड़छाड़ करना गुनाह की श्रेणी में आना चाहिए, एक महानदी में लाखों जीव (जीव- जंतु, पशु-पक्षियों, कीट - पतंग) अनेकों प्रकार की वनस्पतियां जीवित रहतीं उस क्षेत्र की खुशहाली, हरियाली को बनाएं रखतीं वहीं एक छोटी नदी ( जल श्रोत) अपने बहाव क्षेत्र में ए सब करतीं।
नदी या नदीयों को लेकर आम व्यक्ति की मानसिक सोच समझ उनके प्रति स्नेह में जो गिरावट पैदा हुईं उसके जिम्मेदार स्वयं वर्तमान परिवेश में सरकार, समाज सामाजिक संगठन व समस्त ताना-बाना है जो नदीयों को बिना समझे उनके साथ छेड़छाड़ किया, अवरोध पैदा किया, प्रदुषित करने में सहयोग किया या मौन साधकों में सामिल हो गया। परिणाम स्वरूप नदी की आत्मा रोने लगी, दु आशीष देने लगीं साथ ही मानव को अपने किये का फल मिलना शुरू हुआ जैसा वर्तमान परिवेश में नदीयों में,नदीयों से देखने को मिल रहा। अतः इन सभी से बचने के लिए हम नदी को नदी नहीं जीवित आत्मा समझ कर उसके साथ वही व्यवहार, रिस्ते बनाने होंगे जो देश की आजादी से पहले बनें हुए थे जिससे नदी पुनः अपना खोया अस्तित्व प्राप्त कर सके।
- लेखक - राम भरोस मीना