एक अलबेला अनूठा मेला जहां लगा रहा छात्रों का रेला --रामभरोस मीणा
अलवर ,राजस्थान
युवा पीढ़ी के शैक्षिक बौद्धिक विकास, उनमें नैतिक मूल्यों और दायित्वों को समझाने, उन्हें संस्कार वान बनाने के साथ साथ राष्ट्र विकास में अपना महत्वपूर्ण व उल्लेखनीय योगदान देने की भावना जगाने की दिशा में मुझे गत दिनों उत्तर प्रदेश के एटा शहर में स्थित तकरीब 110 साल से भी ज्यादा पुराने राजकीय इंटर कालेज के प्रांगण में पूर्व प्रधानाचार्य स्व० बृजपाल सिंह यादव की स्मृति में आयोजित पुस्तक मेला देखने जाने का अवसर मिला। वैसे यह चार दिवसीय पुस्तक मेला जो 7 दिसम्बर से 10 दिसम्बर तक चला, अपने आप में कई मायने में एक अद्भुत था, अलबेला था, जहां बच्चों को जीवन के हर क्षेत्र में विभिन्न विधाओं, रूचियों, माध्यमों के जरिये आगे लाने, उन्हें शिक्षित करने व संस्कारवान बनाने का एक अनोखा प्रयास किया गया। हकीकत में हम सभी को इस अदभुत पुस्तक मेले से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। सच कहा जाये तो ऐसे मेले हर जगह वह चाहे छोटे कस्बों हों, शहर हों, जिले जिलों में लगने चाहिए ताकि देश के सुदूर ग्रामीण अंचलों के छात्र छात्राएं इनका लाभ उठा सकें और अपने भविष्य को संवार सकें।
सच कहा जाये तो मेला भारतीय संस्कृति और समाज से जुड़ी एक परम्परा ही नहीं, बल्कि यह पिछले कई सों वर्षों से चली आ रही सामाजिक व्यवस्था के साथ ईश्वरीय आराधना व मान्यताओं से गहरे रूप में जुड़ी हुई एक आस्था रही है जहां सभी समुदायों, वर्गों, धर्मों के लोग एक साथ मिलते हैं, आमोद-प्रमोद में लीन रहते हैं और अपनी-अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं की जरूरत का सामान खरीदते हैं। यही नहीं अपने भूले भटकें मित्रों से लम्बे समय के अंतराल के बाद मिलकर प्रसन्नता महसूस करते हैं और पुरानी यादों को ताजा करने का काम करते हैं।दर असल मेलों का अपना एक अलग ही इतिहास रहा है और इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता है।
यह उपयोगिता आवश्यकता के साथ भराएं जातें रहे हैं अब चाहे वह ऊंट, गधा, बेल, घोड़े या किसी भी देवी देवताओं का ही क्यों ना हो मेला मेला ही है, वैसे मेलों को लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में एक कहावत भी है कि मेला मेल-मिलाप का, पैसा धेले का या फिर धक्का पेली का ओर इनमें होता भी यही है। एक दूसरे से मिलना, घरेलू सामान खरीदना, साथीयों के साथ आनन्द लेना । इन्हीं उद्देश्यों तथा भावनाओं के साथ व्यक्ति स्वयं या परिवार दोस्तों के साथ मेलों में जाते है जैसा मेरा स्वयं का भी अनुभव है।
मेले बहुत देखे है सभी देखें हुए मेले मन को मोहने वाले आनंदमय मनोरंजन व एक नई सोच बनाने के साथ अपना अलग महत्व व व्याख्या करते हैं सामाजिक सौहार्द, प्यार प्रेम, धार्मिक भावनाओं को बनाने के साथ उत्पादक वस्तुओं के विक्रय स्थल रहे,लेकिन 07 से 10 दिसम्बर तक उत्तर प्रदेश के एटा जिले के राजकीय इन्टर कालेज (जी आईं सी) के खेल मैदान में स्व. श्री बृज पाल सिंह यादव (पी ई एस) की यादगार में आयोजित आठवां पुस्तक मेला एक अद्भुद अलबेला मेला रहा, जहां छात्रों के बौद्धिक विकास,नैतिक मूल्यों को बढ़ावा देने,शिक्षा के क्षेत्र में आगे लाने के साथ वे प्रतिभाएं जो छूपी हुईं हैं उन्हें समाज सरकार के साथ साथ दुनिया के सामने प्रजेंट किया जाता है, सभी को अवसर दिया जाता है। प्रारम्भ से अन्त तक शिक्षाविदों, समाजसेवियों, पर्यावरणविदों, लेखकों, शोधार्थियों को शिक्षा के साथ साथ पर्यावरण, जल, जंगल, जमीन, ग्लोबल वार्मिंग, बड़ते प्रदुषण, घटते आंक्सिजन, वन्यजीवो का मानव के साथ अन्तर्सम्बन्धों,भौतिकवाद, विकासवाद के साथ गिरते मानवीय मूल्यों को लेकर राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तरीय विद्वानों के विचार सुनने वालों का झमेला लगा रहता है, चारों ओर दूर दराज के शहरों से आयें सैकड़ों प्रकाशनों के दर्जनों पुस्तक विक्रेता जों अपनी दुकानों को सजा धजा कर रखते हुए लाखों का पुस्तक व्यापार करते हैं, वहीं प्रत्येक दिन 10 हज़ार से अधिक छात्र छात्राओं का जमावड़ा लगा रहा। इस मेले से प्रतिवर्ष जिले व आस-पास के 30 - 40 हजार छात्र लाभान्वित होते हैं, यदि मेले में सहभागिता निभाने वाले नागरिकों को इसमें सामिल किया जाएं तब यह संख्या लाख के आसपास होती है। मेले के मुख्य आकर्षण वहां की किताबें, मेहंदी प्रतियोगिता, रंगोली प्रतियोगिता, वाद-विवाद प्रतियोगिता, गांधीवादी विचारकों, पर्यावरणविदों के व्याख्यान, अतिथियों का आवागमन रहे।
मेले के आयोजन कर्ता, मार्गदर्शक, शारीरिक व मानसिक ताकत के साथ सफ़ल बनाने वाली टीम से रूबरू होने पर पाया की यह मेला लोगों को सामाजिक कुरीतियों से दूर रहने, सामाजिक सरोकार के कार्य करने, शिक्षा को बढ़ावा देने, असहाय अनाथ बच्चों को विकास की मुख्य धारा से जोड़ने जैसे उद्देश्यों की ओर प्रत्येक व्यक्ति को आकर्षित करता है जिसकी आज के इस परिवेश में महती आवश्यकता है, उसे एटा जिले में संजय सिंह यादव अपने पिता की यादगार में आयोजित पुस्तक मेले के माध्यम से पुरा करने में अपनें आपको समर्पित करने के साथ शहर को अपने सपनों का शहर बनाने में पिछले आठ वर्षों से लगें हुए हैं, वहीं इनका मार्गदर्शन कर रहे वरिष्ट पत्रकार व पर्यावरणविद् ज्ञानेन्द्र रावत उनकी सोच रही है कि इस प्रकार के आयोजन से एक नवाचार पैदा होता है ओर वे पुरे देश में इस प्रकार के आयोजनों को लेकर एक संदेश देना चाहते हैं जिससे प्रत्येक जिले व राज्य में लोग अपनाएं तथा बच्चों को राष्ट्रीय विकास की मुख्य धारा से जुड़ने का अवसर प्राप्त हो वही प्रत्येक नागरिक खुशहाल व शांति मय जीवन जी सकें जो एक सराहनीय कदम है। जैसा लेखक ने अपनी आंखों देखा व सुना।
लेखक - राम भरोस मीणा, पर्यावरणविद् व स्वतंत्र लेखक हैं।