वर्षा जल को चलना सिखाएं रुकना नहीं - प्रकृति प्रेमी
अलवर (रामभरोस मीणा)
वर्षा ऋतु में वर्षा होने के दौरान वर्षा जल व ग्लेशियरों के पिघलने पर जल तेज़ रफ़्तार से दौड़ लगाते हुए ऊंचे स्थानों से ढलानों की ओर दौड़ता हुआ धरातल पर विभिन्न संरचनाओं नदी, नालों, धोरों को नया आकार देते हुए दौड़ता रहता है जब तक उसे धरती पर मैदानी क्षेत्र नहीं मिलता। मैदानी इलाकों में दबाव कम होने पर हीं यह चलने लगता है, धरातलीय तथा भूगर्भीय संरचनाओं द्वारा भूगर्भ में संग्रहीत होता वहीं संरक्षित, सुरक्षित, उपयोगी होता है। पानी के तेज़ रफ़्तार की दौड़ से ऊंचे पर्वतीय, पठारी, ढलान वालें स्थानों पर वर्ष ऋतु के थोड़े समय बाद जल की कमी महसूस होने लगती है जिसका मुख्य कारण कि जल को चलना नहीं सिखाया वहां दौड़ता रहा। जल जहां दौड़ेगा वहां पानी की कमी रहेगी, जहां रुकेगा उसके आगे पीछे पानी की किल्लत लेकिन जहां चलता रहेगा वहां भूगर्भीय, सतही पानी की कमी नहीं होगी। इसलिए पानी को चलना सिखाएं, दौड़ना तथा एक जगह रुकना नहीं।
पानी जहां चलता वहां अपने रास्ते तथा उसके आसपास के भूभाग में वनस्पतियों,जलचर थल चर जीवों के साथ सुक्ष्म जीवों की विभिन्न प्रजातियां निवास करने लगती, वनस्पतियों के पतझड़, पानी के फैलाव से भूमि नम बनीं रहने के साथ पानी सोखने की क्षमता अन्य भूभागों से तेज़ होती है जो भूगर्भीय जल स्तर को बढाने में सहायक होती है। नमी बनी रहने से वहां की पारिस्थितिकी संरचना, पारिस्थितिकी तंत्र पर्यावरण संरक्षण के अनुकूल होने के साथ कार्बनिक पदार्थों, कार्बन डाइऑक्साइड जैसे हानी कारक गैसों को अपने में समाहित करने की क्षमता बहुत तेज होती है और इसका अंदाजा हम जोहड़, बांध, झीलों या अभयारण्य क्षेत्रों के आस पास के पारिस्थितिकी अध्यन से लगा सकते है। मानव शरीर के पूरे सिस्टम को चलाने में हार्ट व किडनी का जिस प्रकार महत्व होता उसी तरह धरती पर नमी वाले स्थान किडनी का काम करते हैं पर्यावरणीय सिस्टम को बनाएं रखते हैं। विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों का जन्म होता है सभी जीवों के अनुकूल वातावरण होने से वर्ष भर स्वच्छता सुंदरता बनीं रहतीं हैं।
पानी को चलने से रोकने पर उसका स्वभाव, स्वच्छता जहां बदलते हैं वहीं धरातलीय व भूगर्भीय जल संरचनाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ता है जिससे भूगर्भ में जल स्तर गिरता है, कृषि एवं पीने योग्य जल की कमी महसूस होती है। पानी के बहाव क्षेत्रों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, नम धरती अपना स्वभाव बदलने लगती हैं पारिस्थितिकी अनुकूलता गड़बड़ाने के साथ सभी जीव जन्तु वनस्पतियां की हत्या होने लगती है। पर्यावरणीय स्वच्छता सुंदरता नम वायु सभी खत्म होने लगते हैं मानवीय दखलन बढ़ने के साथ प्रदुषण बढ़ने लगता है, जिससे सम्पूर्ण सिस्टम जो प्रकृति ने बनाया मानव ने उसका आनन्द लिया वह सब समाप्त हो जाता है।
जल क्षेत्रों में आर्द्रता कम होती जा रही है,1980 के बाद जल को रोकने की जो परम्परा तेज़ हुईं इसके परिणामस्वरूप जल क्षेत्रों में विकसित वनस्पतियां 70 प्रतिशत कम हुई, नदियों नालों के क्षेत्र में 75 प्रतिशत अतिक्रमण बढ़े, 60 प्रतिशत आर्द्रता खत्म हुईं, पर्यावरणीय प्रदुषण व तापमान में वृद्धि हुई। स्थानीय व प्रादेशिक स्तर की नदियां लुप्त होने लगी जो एक पर्यावरणीय, भौगोलिक, भू गर्भीक अध्यन किए बगैर किए कामों का परिणाम है। चलते जल को रोकने की परम्परा ने उसका स्वभाव, स्वच्छता, गुणवत्ता को बदल दिया वहीं पानी के संग्रह के स्रोतों पर दुष्प्रभाव पड़े हैं। एल पी एस विकास संस्थान के प्रकृति प्रेमी राम भरोस मीणा द्वारा राजस्थान राज्य के अलवर, जयपुर, दौसा, सीकर जिलों के गिरते जल स्तर, खत्म होती भूमि से आर्द्रता, नदियों, नालों, जोंहड, कच्चे बांधों, झीलों पर बढ़ते अतिक्रमणों, वर्तमान जल संरक्षण के कार्यों का अध्यन करने से पाया गया है की वर्षा जल को जितना अधिक रोकने का प्रयास किया गया उतनी ही तेजी के साथ पारिस्थितिकी अनुकूलता गड़बड़ाने लगीं, आर्द्र भूमि नष्ट हुई, पीने योग्य पानी की कमी महसूस हुई थानागाजी में ढिगारिया वालीं नदी पर हुए अतिक्रमण तथा विराटनगर में पानी के कुप्रबंधन से उपजी त्राहि इसके ताज़ा उदाहरण है जो वर्षा जल को चलने से रोकने पर उत्पन्न समस्या है। अतः पानी को चलने दे, रोकें नहीं, जिससे नमी बनी रहें, वनस्पतियों का विकास हो, जल क्षेत्रों से अतिक्रमण बन्द हो, भूमि में पानी सोखने की क्षमता पुनः बने और एक विश्व व्यापी समस्या से निजात मिल सके।
यह लेखक के अपने निजी विचारों है।