पृथ्वी को मदद की जरूरत
अलवर ,रामभरोस मीना
ग्लोबल वार्मिंग के बदलते तेवरों से साफ़ हो गया है कि आज पृथ्वी एक बड़े संकट से जुझ रहीं हैं इसे स्वयं को बचने के लिए मदद की आवश्यकता है। आज परिस्थितियों के विपरित होने से धरती पर तापमान बढ़ने, वायु की गुणवत्ता खत्म होने, आंक्सिजन की मात्रा कम पड़ने के साथ कार्बन डाई ऑक्साइड जैसी जहरीली गैसों का बोलबाला ज्यादा होने के परिणामस्वरूप पर्यावरण में आर्द्रता खत्म होने से शुष्क गर्म हवाओं के तेज़ रफ़्तार पकड़ने , धरातलीय तापमान बढ़ने से प्राकृतिक सम्पदाएं नष्ट हो रही है, प्राकृतिक संसाधनों जल जंगल जमीन पर्वत नदियों से हुएं छेड़छाड़, औधोगीकरण, बढ़ते परिवहन, भौतिकवाद पूंजीवाद के चलते प्रकृतिप्रदत्त संसाधन जो प्रकृति ने धरा के श्रंगार स्वरूप उसकी सुंदरता को बनाए रखने एवं स्वच्छ सुंदर खुशहाल जीवन जीने के लिए सभी प्राणियों को उपलब्ध कराएं आज नष्ट होने के कगार पर पहुंच गए हैं, छोटी नदियां 80 प्रतिशत नष्ट हो चुकीं वहीं महा नदियां 70 प्रतिशत दूषित हो चुकी। पीने योग्य जल के भूगर्भीय अधिकतर भण्डार खत्म हो चूके, अरावली पर्वत मालाएं खोखली होती जा रही है इन सभी के चलते जलवायु परिवर्तन एक समस्या बनी।
वैश्विक तापमान बढ़ा जिसके चलते आज ग्लेशियर पिघल रहे हैं, आपदाएं बड रही है, स्वच्छ हवा पानी खत्म हो गये, मानव स्वास्थ्य ख़तरे में है, जलचर नभचर प्राणियों के लिए जीवित रहना मुश्किल हो गया, इन सभी के पिछे मात्र 2 से 5 प्रतिशत वें लोग जो उधोगपति, भूमाफिया, खनन माफिया या इन से जुड़े हुए हैं, 85 प्रतिशत नुकसान के जिम्मेदार है। लेकिन पृथ्वी पर बिगड़ते प्राकृतिक हालातों से खामियाजा 95 प्रतिशत वें लोग उठा रहे जिन्होंने मात्र 2 से 5 प्रतिशत छेड़छाड़ की। बढ़ते तापमान और वातावरण में आई शुष्कता जलवायु परिवर्तन से किसान की फसले सर्वाधिक प्रभावित हो रहीं, उत्पादन में कमी के साथ पानी की आपूर्ति होना मुश्किल हो गया, पशु धन गायब होते नजर आ रहे हैं, गरिब का जीवन जीना मुश्किल हो गया, वन्य जीवों पशु पक्षियों की अनेकों दुर्लभ प्रजातियां ख़तरे में है।आज पुरे विश्व में यही हालात बने हैं, सम्पूर्ण पृथ्वी पर संकटों के बादल मंडरा रहे हैं, इतनी भयंकर प्राकृतिक आपदाओं को लेकर आज हमें आवश्यकता है कि प्रत्येक नागरिक को उन सभी संसाधनों का संरक्षण करें जो प्रकृति ने हमें जीवन जीने के लिए दिया।
जल जंगल जमीन नदी पहाड़ मैदान सभी को पुनः संजोए, भोगवादी प्रवृत्ति को त्यागा जाएं, सरकारों द्वारा अपनी नितियों में परिवर्तन किया जाए, औधोगिक रुग्ण इकाईयों, अनावश्यक परिवहन पर प्रतिबंध लगाने के साथ वनों के संरक्षण पर अधिक ध्यान दिया जाए, नियमों में शक्ति के साथ बदलाव कर प्राकृतिक संसाधनों के साथ हों रही छेड़छाड़ को रोका जाए, जिससे हम स्वयं आनन्द से रहने के साथ सभी जीव जंतुओं को बचा सकें वहीं आगामी पिंडियों को सुरक्षित रख सकें अन्यथा इस विनाश के चलते 21 वीं शताब्दी के अंत तक पृथ्वी को विनाश से रोकना बड़ा मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होगा इसलिए समय रहते हमें पृथ्वी को विनाश से बचाने के लिए मदद को आगे आना होगा।
लेखक के अपने निजी विचार है, लेखक राम भरोस मीणा जाने माने प्रकृति प्रेमी व समाज विज्ञानी है ।