मानव का मस्तिष्क तो विशाल परन्तु हदय सिकुड़ता जा रहा हैं:- श्री हरि चैतन्य महाप्रभु
कामां (भरतपुर,राजस्थान) श्री हरिकृपा पीठाधीश्वर श्री श्री 1008 स्वामी श्री हरि चैतन्य पुरी जी महाराज ने आज यहाँ श्री हरि कृपा आश्रम में उपस्थित भक्त समुदाय को संबोधित करते हुए कहा कि हम सभी जीवन में आगे बढ़ना चाहते हैं तो नदियों से सीखें। कितनी सामर्थ्य हैं, शक्ति है परंतु मार्ग में आने वाली बाधाओं, रूकावटों से नहीं घबराती हैं, यथासंभव, यथासामरथय, व्यर्थ के उलझावों व टकरावों से बचने का प्रयास करना चाहिए। किसी को छोटा या हीन ना समझें, किसी का तिरस्कार ना करें। जो भी देखें, सुने, पढ़े उस पर विचार करें। किसी को भी नुकीले व्यंग बाण ना चुभाएं अर्थात ऐसा कुछ ना बोलें जिससे किसी के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचे, किसी का दिल दुखे, वैमनस्य पैदा हो जाये। हमारा हृदय विशाल व उदार होना चाहिए। आज मनुष्य का मस्तिष्क तो विशाल हो रहा है परंतु हृदय सिकुड़ता चला जा रहा है।
उन्होंने कहा कि अकड़ या अभिमान नहीं होना चाहिए। यूं भी अकड़ तो मुर्दे की पहचान है जीवन्तता होनी चाहिए। मस्तिष्क ठंडा, खून गर्म व चेतना जागृत हो तो समझो व्यक्ति सही मायने में जीवित है जीवन में आगे बढ़ने के लिए इन बातों पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। दैवत्व परिपूर्ण जीवन में समाज में एक दूसरे के साथ सहयोग की भावना जागृत होती है। ना तो किसी से डरो तथा ना ही किसी को डराओ। दैवीय सम्पदाओं में प्रथम स्थान अभय को दिया गया है। भय के रहते कोई भी सदगुण टिक नहीं पायेगा। उन्होंने कहा कि बुद्धिमान व्यक्ति कुछ भी बोलने, कार्य करने, सम्बंध बनाने, व्यवहार करने से पूर्व विचार करता है उसे सफलता मिलती है लेकिन मूर्ख व्यक्ति बाद में विचार करता है उससे पश्चाताप, गिलानी व उपहास का पात्र बनना पड़ता है। अपने विवेक को सदैव जागृत रखें।
अभय होने के लिए व्यवहारिक उपाय है ।अपना काम ईमानदारी व सच्चाई से करो, फिर सांच को आंच नहीं। भय के हजारों रूप हैं। हजारों अवैध संताने हैं भय की कहाँ तक गिनायें बीमारी का भय, रोटी का भय, इज्ज़त का भय, दुघर्टनाओं का भय, शरीर को मुत्यु का भय, रूप को बुढापे का भय, भोग को रोग का भय, धन को नष्ट होने का भय, चोर को सरकार का भय, शास्त्र में शास्तार्थ का भय, शेर को सवाशेर का भय, कुल के नष्ट होने का भय इत्यादि।अभय तो एकमात्र वैराग्य में ही है। आकांक्षा, निराशा, ईर्ष्या ,जलन, नफरत, हताशा, हीनता, घमंड, दर्प, अभिमान ये भी भय के ही रूप हैं। अच्छा हुआ जो सागर के किनारे खड़े जहाज में चेतना नहीं है वह जड़ है अन्यथा वह सागर की लहरों के भय के कारण यात्रा पर आगे जा ही नहीं पाता। समुंदरी जीवों के भय के कारण अन्दर उतरने का भी साहस न जुटा पाता। काँपता हुआ भयभीत जहाज सागर तट पर ही डूब जाता। उन्होंने कहा भय से तभी तक डरना चाहिए जब तक वह ना आये तथा भय आये तो उससे भय कैसा उस समय भय का तो डटकर मुकाबला करना चाहिए। अपने देश की अमूल्यू व महान संस्कृति को समझे व अपनाये। पाश्चात्य सभ्यता के अंघानुकरण को त्यागकर संस्कृति के अनुसार जीवन जिये यदि ना जी सकें तो कम से कम विकृति परिपूर्ण जीवन जीने की कोशिश ना करे।
महाराज श्री ने कहा कि हमे प्यारे वतन व इसकी महान व अमूल्य संस्कृति पर गर्व है व सभी भारत वासियों को होना भी चाहिए। विश्व बंधुत्व “सर्वे भवंतु सुखिन व वसुधैव कुटुंम्बकम” का भाव रखती हैं हमारी भारतीय संस्कृति। जिस की आन बान व शान को बनाये रखने के लिए असंख्य भारत माँ के सपूतों ने अपनी कुर्बानियां हमेशा से दी हैं। जिसका गौरव बढ़ाने व बरकरार रखने के लिए अपना सबकुछ बलिदान कर दिया हमें उन कुर्बानियों को व्यर्थ नहीं जाने देना है। तथा स्वयं भी आत्मनिरीक्षण करके जानना हैं कि अपनी भारत मां को जगद्गुरु के पद पर प्रतिष्ठापित करने, इसकी आजादी को बरकरार रखने व शांति का साम्राज्य स्थापित करने मे हमारा क्या योगदान है। अधिकारो के लिए लोग आज जागरूक हुए है लेकिन हमारा कर्तव्य क्या है इसे भी पहचाने व पालन करें। कल सीमित लोगों के बीच बहुत सादगी से ही श्री महाराज जी का पावन जन्मोत्सव मनाया जाएगा। कल अखण्ड राम चरित मानस पाठ प्रारंभ होगा जो 12 जून को सम्पूर्ण होगा।