क्रांति की ज्योति थी सावित्रीबाई फुले..... मंगल चंद सैनी
उदयपुरवाटी (सुमेर सिंह राव)
किसी भी पुरुष को महान बनाने में उसकी पत्नी या माता का अहम योगदान रहता आया है ज्योतिबा फुले को भी महात्मा व युग पुरुष बनाने में उनकी पत्नी सावित्री फुले की विशेष भूमिका थी. जब उन्होंने देखा कि उनके पति शुद्र अति शूद्र जातियों तथा नारी वर्ग को शिक्षा के द्वारा क्रांतिकारी आंदोलन में जुटे हुए हैं तो सावित्रीबाई ने अपने पति के सामने पढ़ाई करने का प्रस्ताव रखा जिसे फूले ने तुरंत मानते हुए सावित्रीबाई को पहले स्वयं पढ़ाया फिर पुणे में मिशेल नामक एक ब्रिटिश मिशनरी महिला जो नॉर्मल स्कूल चलाती थी उसमें तीसरी कक्षा में प्रवेश लिया और अध्यापक कार्य का प्रशिक्षण प्राप्त किया.
अध्यापन प्रशिक्षण कार्य कारण पूर्ण करने पर सावित्रीबाई महात्मा फुले द्वारा पुणे में संचालित बालिका विद्यालय में प्रथम शिक्षिका बनी वह किसी भी भारतीय द्वारा स्थापित पहला बालिका विद्यालय था. बाद में सावित्रीबाई इस विद्यालय की प्रधानाध्यापिका बनी. आप सोचिए कुछ दशकों पहले तक बालिकाओं को स्कूल भेजना कितना मुश्किल कार्य था जबकि वह वक्त तो लगभग 175 वर्ष पूर्व का था उस वक्त तो बालिकाओं को पढ़ना तो दूर घर से बाहर निकलना ही दुष्कर कार्य था फूले दंपति द्वारा बालिकाओं की स्कूल खोलकर शिक्षा देने से ब्राह्मणों ने पुणे शहर में हड़कंप मचा दिया और इसे धर्म विरोधी आचरण करार दे दिया जब सावित्रीबाई स्कूल जाती तो महिला पुरुष उन पर कीचड़ पत्थर फेंकते थे सावित्रीबाई कहती थी"भाइयों मुझे प्रोत्साहन देने के लिए आप मुझ पर पत्थर नहीं फूलों की वर्षा कर रहे हैं"
इस स्कूल की सफलता से प्रेरित होकर फूले दंपति ने 15 मई 1848 को पुणे शहर की अछूत बस्ती में अछूतों के लड़के लड़कियों के लिए स्कूल खोली जो अछूतों के बच्चों की देश की पहली पाठशाला थी. कुछ ही समय में उन्होंने पुणे व उसके आसपास के गांव में 18 स्कूल खोलें.
सावित्रीबाई का महात्मा जी को सहयोग शिक्षा के साथ अन्य क्षेत्र में भी था, महात्मा फुले ने बाल हत्या प्रतिबंधक गृह खोला जिसमें तीन-चार वर्षो में लगभग 100 विधवाओं ने अवैध बच्चों को जन्म दिया, इस आश्रम का संपूर्ण संचालन सावित्रीबाई फुले ही करती थी. इस बाल हत्या प्रतिबंधक गृह में एक ब्राह्मण विधवा काशीबाई ने एक अवैध बालक को जन्म दिया जिसे फूले दंपति ने गोद का पुत्र बनाया व अपनी संपूर्ण जायदाद का मालिक उसे अपनी वसीयत में बनाया. सावित्रीबाई ने महात्मा फुले के आंदोलन तथा क्रांतिकारी कार्यों में प्रत्येक स्तर पर उनके कंधे से कंधा मिलाकर काम किया किंतु महात्मा जी के 1890 में निधन के बाद सावित्रीबाई ने सत्यशोधक समाज को निरंतर आगे बढ़ाया और महात्मा जी की कमी महसूस होने नहीं दी.
सन 1897 में महाराष्ट्र में हैजे की भयंकर बीमारी से हजारों लोगों की मृत्यु हो चुकी थी लोग शहर छोड़ कर जंगलों की तरफ भाग रहे थे ऐसे बुरे वक्त में सावित्रीबाई ने हैजे से पीड़ित लोगों को उनके पुत्र डॉक्टर यशवंत के अस्पताल में मुफ्त इलाज करवाया. एक दिन वह अस्पताल जा रही थी तो एक अछूत महार जाति का बालक सड़क पर भयंकर बुखार से पीड़ित होकर सड़क पर पड़ा था किसी ने उसे उठाने की कोशिश नहीं की किंतु सावित्रीबाई उसे कंधे पर लादकर डॉक्टर यशवंत के अस्पताल लेकर आई जिसके कारण उन्हें भी हैजे की बीमारी ने जकड़ लिया और अंत में 10 मार्च 1897 को उनका निधन हो गया.
शिक्षा के लिए वे कहती हैं"उठो अति शुद्र भाइयों जागो, पारंपरिक गुलामी को तोड़ने तैयार हो जाओ, भाइयों पढ़ लिखने के लिए जागो"
क्रांति ज्योति को उनकी जयंती पर शत-शत नमन
(लेखक के यह अपने निजी विचार हैं