परम्परागत जल विज्ञान के सहयोग से हों जल संरचनाओं का निर्माण - मीणा
नदियों का दुःख दिनों दिन बढ़ता जा रहा है जो आगामी समय में छोटी नदियों को नष्ट करेगा ही साथ में एक नई आपदा भी पैदा करेगा जिससे निपटने के लिए हमें वर्तमान विज्ञान के साथ साथ परम्परागत जलीय प्रबंधन के अनुभवों को साझा करते हुए जल संरचनाओं का निर्माण करना चाहिए, जिससे नदियां भी जीवित रहे और आपदाएं भी पैदा ना हो।
नदियां स्वतन्त्र रूप से धरातल पर बहने वाली एक जलीय धारा है जों अनेकों छोटी व बड़ी धाराओं को साथ लेकर चलती है। छोटी छोटी अनेकों जलीय इकाईयों के ऊंचे स्थानों से मैदानों की ओर एक समान ढलान में बहते हुए आपस में समायोजित होने पर एक बड़ा रूप लेकर वर्षा काल तथा उसके कुछेक समय बाद तक धरातल पर बहती हुई दिखाई देती है, लेकिन इसके बाद यह मर ती नहीं बल्कि अपने परकोलेशंन टेंको में एकत्रित पानी से आंतरिक प्रवाह को बनाए रखने में सक्षम होती है और इसके परिणामस्वरूप नदी के निचले भागों में बने गार्ज या प्राकृतिक झील जो वर्षभर पानी से भरे नज़र आते हैं जबकि भु गर्भ के जल का दोहन जैसे जैसे बढ़ता जाता नदियों का बाहरी बहाव बन्द हो जाता है, साथ ही निचले स्थानों पर इन परिस्थितियों में भी पानी साल के अधिकतर महिनों तक बहता रहता है, उसी से नदी का पारिस्थितिकी तंत्र अनुकूल बना रहता, विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों के साथ वन्य जलीय जीव जंतुओं को रहने के अनुकूल वातावरण नदी की स्वच्छता सुंदरता बनीं रहतीं हैं।
नदी की गुणवत्ता उपयोगिता स्वभाव को समझना जरूरी होता है उसी के साथ उस पर भूमि गत पानी की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तालाबों का निर्माण करना चाहिए, नदी की मुख्य धारा पर कभी भी कोई निर्माण नहीं होना चाहिए यह समाज विज्ञान कहता है। समाज द्वारा हजारों साल के अनुभवों को साझा करते हुए नदियों के साथ उसके सम्बन्ध एवं विकास से उत्पन्न परम्पराओं से समाज विज्ञानियों की पैदाइश हुई और उन्हीं द्बारा समाज विज्ञान का निर्माण किया गया, जिसके तहत् नदी को कभी मरने नहीं दिया गया, बल्कि उसे स्वच्छ सुंदर प्रकृति के अनुकूल बनाएं रखने का काम किया। नदियों के संरक्षण में समाज की सहभागिता सुनिश्चित हुईं। नदियों की उपयोगिता व प्रबंधन को लेकर नदी विशेषज्ञ स्वर्गीय श्री कृष्ण गोपाल व्यास ने अपनी पुस्तक ताकि नदियां बहती रहें में लिखा है कि नदी के प्रवाह की बहाली के लक्ष्य को केवल विज्ञान सम्मत कामों को करने से हासिल नहीं किया जा सकता है, प्रवाह को टिकाऊ बनाए रखने के लिए समाज के सहयोग से नदी जल का बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग तथा प्रबंधन आवश्यक है। राष्ट्रीय पर्यावरण सुरक्षा समिति के अध्यक्ष एवं पर्यावरणविद् श्री ज्ञानेन्द्र रावत अपने अनुभवों को साझा करते हुए कहते हैं कि देश दुनिया में नदियों के वर्तमान जल प्रबंधन व्यवस्थाओं ने जल संग्रहण के नाम पर छोटी नदियों की हत्या की है, हमें डेढ़ सो साल पहले की जलीय परम्परागत सामाजिक विज्ञान व व्यवस्थाओं को साझा करते हुए नदी प्रबंधन को अपनाना चाहिए जिससे नदियां बच सकें।
नदियों की मुख्य धारा में हुएं निर्माण नदी के बाहरी बहाव को अवरूद्ध करते हैं वहीं इनका आंतरिक प्रवाह तंत्रों पर भी असर पड़ता है। प्रवाह तंत्रों पर प्रभाव पड़ने से नदी के निचले बहाव क्षेत्रों में जल संचय नहीं हो पाता परिणामस्वरूप वहां नदी की आन्तरिक संरचनाओं के साथ बाहरी बहाव क्षेत्र सिकुड़ते जातें हैं और नदी अतिक्रमण की चपेट में आना प्रारंभ हो जाती है, जैसा राजस्थान में साबी की सबसे बड़ी सहायक गुमनाम नदी (नारायणपुर वाली नदी) के साथ हुआं। राजस्थान में वर्तमान जल संग्रहण कार्यों के तहत् दर्जनों छोटी बड़ी नदियां की हत्या हुई जों जलीय कु प्रबंधन का परिणाम है। नदी को बनाए रखने के लिए कभी भी इसके मुख्य बहाव क्षेत्र में अवरोध पैदा नहीं करना चाहिए, फाल्ट फोल्ड के उपयुक्त हिस्सों रेत बजरी की परतों पर परकोलेशन सह संचय तालाबों का निर्माण होना चाहिए, जिससे नदी जीवन्त रहने के साथ जल का अच्छा प्रबंध हों सके और यह तब ही संभव है जब नदियों के प्रबन्धन में समाज विज्ञान को सामिल किया जाए। जैसा लेखक का अपना निजी अनुभव है।
- लेखन- रामभरोस मीणा