लुप्त होती जोहड़ संस्कृति बढ़ा जल अपव्यय
अलवर (राजस्थान/ रामभरोस मीणा) जोहड़ शब्द सुनने पढ़ने में बहुत हीं आसान लगता है लेकिन जोहड़ को समझने, पढ़ने की कोशिश कि जाएं तो पता चलता कि "जोहड़ मानव निर्मित जल भण्डार " है, जोहड़ से ग्राउंड वाटर में इजाफा होने के साथ वर्ष भर पशु - पक्षी ,मानव , जीवं - जंतू के पीने के पानी की आवश्यकता पुरी करता, वनस्पतियों को बनाएं रखता। राजस्थान में इनकी संख्या लगभग एक लाख है, पिछले तीन दस्क तक इनके उपयोग व आवश्यकता को यहां हर एक व्यक्ति समझा समझाने की कोशिश करता रहा।
जल व्यवस्था को लेकर पर्यावरणविद् श्री अनुपम मिश्र द्वारा लिखित पुस्तक "आज भी खरे है तालाब", जोहड़ की संस्कृति, जोहडों के महत्व, आवश्यकता, निर्माण में समाज की सहभागिता सभी को स्पष्ट करते नज़र आती, लेकिन पिछले दो दशक में यह संस्कृति पुर्णतया जहां खत्म होने के कगार पर पहुंची जल अपव्यय बढ़ा।
राजस्थान में जल का महत्व, जल संस्कृति पढ़ने, देखने, सुनने को काफ़ी हद तक मिलती। गांव, गुवाडे, ढाणी , कस्बे में जल की आवश्यकता को ध्यान में रखते उसकी पूर्ति के लिए गांव समाज जाति धर्म साथ मिलकर वहां की भौगौलिक धरातलीय भूगर्भिक संरचनाओं, प्राकृतिक आपदाओं, मानवीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखते निर्माण करतें, जो हमेशा सुरक्षित उपयोगी रह सकें।
समाज में जोहड़ का अपना विशेष महत्व रहा। यें पीने के पानी, जल संग्रहण, भू गर्भ में पानी पहुंचाने , पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के साथ जैवविविधता को बनानें का काम करते। जोहड़ बनने के बाद एकत्रित पानी का 40 प्रतिशत ग्राउंड वाटर लेवल, 20 प्रतिशत वाष्प बनकर वातावरण में आर्द्रता पैदा करता शेष 40 प्रतिशत पानी जोहड़ में वर्ष भर पशु पक्षी, मानव, जीवं जंतू, वनस्पति के काम आता। सामाजिक तानें-बानें से बनें जल संग्रह के संसाधनों में वर्षा जल के साथ मिट्टी, कंक्रीट, बालु, अपशिष्ट बह कर आने से तीन चार वर्ष में इनके भू गर्भ में जल संग्रहण की क्षमता कमजोर पड़ कर 20 से 30 प्रतिशत रह जाती, पानी के वाष्पीकरण की क्षमता बढ़ कर इसके विपरित 30 से 40 प्रतिशत हो जाती, जोहड़ के चारों ओर नमी बढ़ने से प्राकृतिक वनस्पतियों को पनपने का सुनहरा अवसर प्राप्त होता। पानी अधिक ठहरने, रिचार्ज नहीं होने की स्थिति में गांव समाज जाति धर्म और वर्ग विशेष (साधु संत, सेठ साहूकार, सामाजिक संगठन) द्वारा तलछट करवाया जाता जिससे पुनः अपनी यथा स्थिति व शक्ति के साथ वाटर रिचार्ज होता। यह सम्पूर्ण जिम्मेदारी समाज की समाज द्वारा तय रही, इनके संरक्षण में गांव ही सरकार का काम करते।
बढ़ते मानवियत दखलनों, शिक्षा नीति में नैतिक मूल्यों का अभाव, सामाजिक व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी सरकार के हाथों आने के साथ पानी आवक क्षेत्र में अवरोध पैदा होने से इनकी उपयोगिता जहां खत्म हुई वहीं भू गर्भीय जल संग्रह की क्षमताएं नगण्य होकर अनुपयोगी बन गए, आज 90 प्रतिशत जोहड़ अतिक्रमण की चपेट में आने के साथ कचरा पात्र बन गये। पर्यावरण संरक्षण को लेकर काम कर रहे अलवर राजस्थान के एल पी एस विकास संस्थान द्वारा वर्ष 2004-2005 में थानागाजी पंचायत समिति के मानकोट गांव के जोहड़ में सामाजिक ताने-बाने के सहयोग से 375 चौकड़ी मिट्टी की निकाली।
मानको जोहड़ की सफाई की जो आज तक अपना अस्तित्व बनाए रखा। लेकिन नष्ट होती जल संस्कृति, सामाजिक संस्कारों के अभाव , सरकारी दखलनों से पुनः सफ़ाई नहीं की गई। पानी के आवक क्षेत्र में अवरोध पैदा कर दिये, चारौं तरफ़ अतिक्रमण बढ़ने लगा, यह केवल मानकोट के जोहड़ के हालात नहीं बल्कि राजस्थान में सभी जोहडों के बनें हुए हैं। ग्रामीण पेयजल व्यवस्थाओं में एका एक आएं बदलाव केवल समाज को दोषी नहीं ठहरा सकते सरकार भी दोषी है। हजारों वर्षों के सामाजिक अध्ययन,शोध, अनुभवों से पनपी जोहड़ की परम्परा को शुद्ध पेयजल योजनाएं लागू करने के बहाने खत्म किया गया, जिससे ना शुद्ध जल मिला ना जल संग्रह किया। जल व्यवस्था की नई योजनाओं से जल अपव्यय बढ़ा, परमपराएं खत्म हुई, शुद्ध पेयजल मिलना बंद हुआं ग्राउंड वाटर के भण्डार खत्म होने लगें जो मानवीय विनाश के संकेत देते दिखाई दे रहे है।
जोहड़ व्यवस्था को खत्म होते देख एल पी एस विकास संस्थान के प्रकृति प्रेमी निदेशक राम भरोस मीणा ने सामाजिक व्यवस्थाओं को पुनः आगे आने, हर एक जल पात्र जो सामाजिक व्यवस्थाओं से बना के संरक्षण की जिम्मेदारी सामाजिक संगठनों, सामाजिक साहुकारों, भामाशाहों द्वारा अपने हाथों लेकर कार्य करने की वर्तमान परिस्थितियों में आवश्यकता मानते हुए जल की बढ़ती कमी को पूरी करने में सहयोग की अपेक्षा की वहीं सरकार को चाहिए की वह इस कार्य के लिए प्रोत्साहित करे,
अपनी नीतियों में बदलाव करें साथ ही जल अपव्यय को रोकने के लिए सार्थक प्रयास करें, जिससे अधिक से अधिक जल संचय हो सकें, आगामी बिगड़ती पर्यावरणीय परिस्थितियों में इस प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं से बचने के साथ पानी को लेकर पनप रहे गृह युद्धों से बचाया जा सकें।