नदियों को जिंदा रखने के लिए वन जरूरी संपदा- मीणा
नदी का विकास या कहें कि नदी का जन्म अधिकतम वे स्थान रहें जो पहाड़ी, पठारी अथवा ऊंचे भूभाग वाले क्षेत्र जहां वन एवं वन सम्पदा अधिक मात्रा में पाई जाती रही, नदी छोटी हो या बड़ी "नदी ही है"। नदी का अपना महत्व है। जितने सघन वन व ऊंचे पहाड़ों से धरातल की ओर बहती , उतने ही लंबे समय जलधारा से खुशहाली पैदा करने के साथ वर्ष भर बहती हुई प्रकृति में अपनी एक अद्भुद छंटा छोड़ती, जंगल में उगी वनस्पतियों, पेड़ पौधे अपनी जड़ों के माध्यम से भु गर्भ में वर्षा जल का संग्रह करते, घने जंगल बरसात की बूंदों की प्रहारक क्षमता को कम करते हैं। वृक्षों के पत्तों से बरसा पानी मिट्टी व सुखे पत्तों द्वारा नमी बनाए रखने के साथ पानी अधिक समय धरती के संपर्क में बना रहता, अधिक मात्रा में धरती में रिश्ता,भु गर्भ में स्थित जल टेंको को भरने में मददगार बनते साथ ही अधिकांश वन भूमि की परतों की मोटाई , सरंध्रता, पानी ग्रहण करने की क्षमता अच्छी होने से भूजल का संचय अधिक होता है। वन क्षेत्र में डाल कम होने से परतों में जमा पानी काफी दिनों तक नदी को मिलता जिससे नदि का प्रवाह वर्ष भर बना रहता है।
वनोपज में विविध प्रकार के औषधीय जड़ी बूटियों, पेड़ पौधे, खनिज व जैविक पदार्थ पानी में घुलने से नदी का जल प्रदुषण मुक्त, स्वच्छ, पीने योग्य,रोगरोधी क्षमता वाला होता हैं। इसी वास्ते नदी का महत्व सभी जल श्रोतों में श्रेष्ठ हैं। नदी अपनी जैवविविधता को बनाएं रखतीं जो पर्यावरण संरक्षण व सुरक्षा में लाभ दायक होने के साथ जल ,नभ व धरती पर मौजूद सभी जीवो वनस्पतियों के पोषण का कार्य करती है।
नदी को सदा नीर बनाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों के आधार को मजबूत करना होगा, इससे वन व नदी क्षैत्र में नमी बनी रहेगी,नदी का प्रवाह सुरक्षित रहेगा,जंगल बचेंगे साथ ही जलवायु के दुष्प्रभावों से बचना आसान होगा। वनों की संघनता बढ़ाने के लिए जो प्रयास किए जाएं उनमें समाज की भागीदारी होना आवश्यक है। नदी बहाव क्षेत्रों में आधुनिक इंजीनियरिंग के माध्यम से किए जा रहे छेड़छाड़ को कम करते हुए दो से तीन दशक पुर्व के सामाजिक अनुभवों के साथ वन विभाग की परिष्कृत अवधारणा को अपनाया जाए,उसे ध्यान में रखते हुए जल संग्रहण के कार्य हों जिससे नदी हमेशा सदा नीर बनी रहें जंगलों को संरक्षण प्राप्त होता रहें ये लेखक के अपने निजी विचार है।
- लेखक- राम भरोस मीणा